कविता

खेल

खेल

खेल होते है प्यारे न्यारे ,
बचपन के थे वो साथी ,
कभी छुपते ,कभी खोजते,
लंगड़ी टांग से पकड़ते ।

गिल्ली डंडा , पकड़म पकड़ाई,
रात दिन खेलते साथी सभी,
नही था तब भेद लड़के लड़की का,
तेरा मेरा अपना पराया नही था ।

अपनापन था साथ था प्यारा ,
तब ईर्ष्या झगड़ा क्या होता,
यह नही जानते थे हम ,
कितना भी लड़ते फिर एक हो जाते।।

अनोखा प्यारा बचपन मेरा ,
उसके खेल भी न्यारे न्यारे,
खो गया मेरा ओर सभी का ,
वो प्यारा न्यारा बचपन।।

आज जो बच्चे थे वो भी,
खेलते है पर साथी वो नही है,
खेल खेलते है आज छल का,
खेल जितना छल सकते छलों,

स्नेह साथ कि भावना सभी की ,
मर गई या मरती जा रही है ,
आत्मिक प्रेम खत्म हो रहा है,
छल कपट जगह ले रहै है ।

आज सबको लेना ही लेना है ,
देना नही है किसी को ,
लेने में ही तो सभी खेलते है ,
विश्वास और भावनाओं से ।।

नही किसी को किसी से मतलब,
कोई मरता है तो मरे ,
अपना काम चलता रहे बस,
यही सोच है आज के खेल की ।।

खेल बदला ,समय बदल गया,
इंसान बदला, भावनाएं बदल गई,
भाई भाई न रहा ,
दोस्त दोस्त न रहा सब बदल गया ।।

कैसा है ये खेल अनोखा जो ,
सभी खेल रहे क्या बच्चे,
बड़े बूढ़े भी यही खेल रहे है ।
दुनिया का रोचक खेल भावना का ।।।।

सारिका औदिच्य

*डॉ. सारिका रावल औदिच्य

पिता का नाम ---- विनोद कुमार रावल जन्म स्थान --- उदयपुर राजस्थान शिक्षा----- 1 M. A. समाजशास्त्र 2 मास्टर डिप्लोमा कोर्स आर्किटेक्चर और इंटेरीर डिजाइन। 3 डिप्लोमा वास्तु शास्त्र 4 वाचस्पति वास्तु शास्त्र में चल रही है। 5 लेखन मेरा शोकियाँ है कभी लिखती हूँ कभी नहीं । बहुत सी पत्रिका, पेपर , किताब में कहानी कविता को जगह मिल गई है ।