कविता

मुक्त काव्य

“मुक्त काव्य”

न बैठ के लिखा, न सोच के लिखा
तुझे देखा तो रहा न गया और खत लिखा
जब लिखने लगा तो पढ़ना मुश्किल हो गया
अब पढ़ने लगा हूँ तो लिखना मुश्किल है
अजीब है री तू भी पलपल सरकती जिंदगी
तुझे पाने के लिए अर्थहीन शब्दों में क्या क्या न लिखा।।

कभी रार लिखा तो कभी प्यार लिख बैठा
कभी मन ही मन में तेरा श्रृंगार लिख बैठा
कभी आल्हा की तर्ज आजमाईश की
कभी अतिशयोक्ति की बौछार की
कभी पद को सँवारने लगा कभी दोहे को दूहने लगा
कभी छंद को बाहों में समेटने की कोशिश भी की
कभी गजल गीतिका में हूबहू तेरा किरदार लिख बैठा।।

जब भी सम्मान लिखने बैठा अपमान गले पड़ गए
मंच पर भी गया और तेरा घूँघट उठाया
तालियों के बीच कभी गालियों के बीच वाह मिली
कभी जमीन पर बैठा तो कभी पेड़ पर चढ़ गया
पीले सरसो में तुझे ढूंढा, अमराइयों में ढूंढा
वन बाग पहाड़ नदी नाले तालाब व समंदर में ढूंढा
तू थी जब साथ साथ तो बोझ लगा फीका
हर रात संग बिताया पर दिन को लिख न पाया
सम्हाल कोरा कागज इकरार लिखा जिसमें।।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ