कविता

ढाई आखर

समझ ना पाया खुद को
दर्द सभी मैं सहता हूँ ,
तुमने चकनाचूर किया
अब भी तुम पे मरता हूँ।
आराध्य समझ बैठा तुमको
उम्र तुम्हारे नाम किया
तुमको चाहा तुमको सोचा
ना कोई दूजा काम किया।
ढाई आखर के पंडित ने
कितना नाच नचाया है
सूखे मन के मानसरोवर में
बरखा ने प्यास बढ़ाया है।
जुल्म सितम मुझपे करते
फिर भी लगते प्यारे थे
दुश्मन से भी बढ़के निकले
तुम तो मीत हमारे थे।
भूले भटके रह-रह कर के
मैं इतना याद आऊंगा
भर ना सकेगा कोई जिसे
उस जगह छोड़ के जाऊंगा।
आशीष तिवारी निर्मल 

*आशीष तिवारी निर्मल

व्यंग्यकार लालगाँव,रीवा,म.प्र. 9399394911 8602929616