कविता

कलियुग का रावण

विनाश काले विपरीत बुद्धि
इस कथनी का मारा हूँ ।
जानकी अपहरण करके मै खुद
अब तक भी पछताता हूँ ।

सुन पुकार जानकी की तब
राम दौड़े आ जाते थे।
रघुकुल रीत निभाने को तब
मृत्यु से भी लड़ जाते थे ।

दुःख होता है देख के मुझको
रुदन कर रही है कई सीताये वहाँ
बर्बरता से किये गये हों
चुनरी के कई चिथड़े जहाँ

सुन आवाज तुम्हारे दर्द की
सोचते हो कि वो आयेंगे।
नीति से लडने वाले राम कहाँ
इस कलियुग मेँ टिक पायेंगे।

ऐसे समय में उस राम को
क्यों आवाज लगाते हो ।
नीति वश दुर्बल हो सीता को
जो अग्नि से परखवाते हो ।

नीति से लड़ने का समय नहीं है
ये बात तुम्हे समझाता हूँ ।
त्रेतायुग का राम नहीं मै]
कलियुग वाला रावण हूँ ।

मेरी विद्वता थी मुझ पर भारी
अहंकार में था डूब गया ।
सत्ता और ताकत के मद में
सच्चाई को था भूल गया ।

अपनी गलती का एहसास मुझे है
खुद भूल सुधारने आया हूँ ।
खुद के भेजे मरीचियों से अब मै
सीता को बचाने आया हूँ ।

नवकन्या को कोख में मारे
वो सब विषधर पापी है ।
ऐसे विषधर सर्पों के मैं
फन कुचलने आया हूँ ।

त्रेतायुग का राम नहीं मैं
कलियुग वाला रावण हूँ ।
दे दो मेरा संदेशा उन्हें
मैं राम नहीं मैं रावण हूँ ।

— गजेन्द्र परेवा

गजेन्द्र परेवा

मो. नं. 7737003550