इतिहास

“खलीफत-गांधी एक्सप्रेस” की शताब्दी पर मौन क्यों? (भाग -1)

दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद भारत में गाँधी जी ने पहला राजनीतिक अभियान 1919 ई. में शुरू किया था। आज उसकी शताब्दी मनाना तो दूर, उस का नाम तक कोई नहीं ले रहा! जी हाँ, ‘खलीफत आंदोलन’ याद करें, जो वस्तुतः ‘खलीफत-जिहाद’ था, जिसे कांग्रेस अध्यक्ष रहीं विदुषी एनी बेसेंट ने ‘गाँधी-खलीफत एक्सप्रेस’ कहा था। वह गाँधी जी का पहला राजनीतिक अभियान ही नहीं, अपितु ऐतिहासिक भी रहा। खलीफत में शामिल होने से ही ऐसी गाँधी आँधी बनी कि कांग्रेस की पिछले चौंतीस वर्ष की राजनीतिक परंपरा झटके में उड़ गई। उसका तात्कालिक नेतृत्व बेरंग होकर पीछे हट गया।

जिस कारण एनी बेसेंट, मुहम्मद अली जिन्ना, डॉ. हेगडेवार जैसे अनेक नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी, जिसके बाद कांग्रेस की वैचारिकता ‘वन्दे मातरम्’ वाले स्वदेशी भाव से दूर होती चली गई, जिस आंदोलन के कुछ भारतीय मुस्लिमों के हस्तक्षेप को बहाना बनाकर तुर्की में कमाल पाशा ने इस्लाम के खलीफा सुलतान को देश-निकाला दे दिया, जिस आंदोलन में गाँधी के जुड़ने से भारतीय इतिहास में पहली बार मुल्ले-मौलवियों को राजनीतिक महत्व मिला जो उन्हें मुगलकाल में भी हासिल नहीं हुआ था तथा जिस आंदोलन के प्रभाव से पूरी बीसवीं सदी का भारतीय इतिहास ग्रस्त रहा और आज भी मुक्त नहीं हुआ है – उस विशिष्ट “गाँधी-खलीफत आंदोलन” की शताब्दी मनाने कोई आगे नहीं आ रहा है! न कांग्रेस, न मुसलमान, न कम्युनिस्ट, न गाँधीवादी संस्थाएं, और भाजपा भी नहीं, जिसने गाँधी-जयंती बढ़-चढ़कर मानने में अपनी मान्यताएं ही नहीं, सारा अनुपात-बोध छोड़ दिया है। सब ने “खलीफत आंदोलन” को तहखाने में डालने की कोई गोपन दुरभिसंधि कर ली है। एक यही तथ्य चुगली कर देता है कि यह आंदोलन कितनी बड़ी और भयावह घटना थी, जिसका सत्य छिपाकर ही ‘सत्य के पुजारी’ की अतिरंजित महानता बचाई जा सकती है। क्योंकि उसी आंदोलन से गाँधी पहली बार भारत के सर्वप्रधान नेता बने, और क्या विडंबना! कि उसी आंदोलन ने यहाँ हिन्दुओं पर वह विभीषिका लादी जिसके मनोवैज्ञानिक दुष्परिणामों से वे आज तक पूरी तरह नहीं उबर सके हैं। इसीलिए, अपने-अपने कारणों से यहाँ सभी राजनीतिक धाराएं उसे छिपाना चाहती हैं।

वामपंथी इतिहासकारों के अनुसार खलीफत आंदोलन में गाँधीजी ने शामिल होकर, मगर उसे मनमाने बीच में वापस लेकर अवसरवादिता दिखाई, उस से मुसलमानों में संदेह भर गया। तब गाँधीजी महज 46 वर्ष के थे और उस से पहले भी कोई पचीस साल दक्षिण अफ्रीका में रहे। वहाँ भी वे नागरिक अधिकारों की सीमित, कानूनी लड़ाइयाँ लड़ते रहे थे। यानी, गाँधी को राष्ट्रवादी लड़ाई का न अनुभव था, न ज्ञान। ऐसी स्थिति में भारत आते ही राजनीति में कूदना और फौरन सर्वोच्च स्थान ले लेना एक बड़ी भूल थी। इस प्रकार, गाँधीजी के संपूर्ण राजनीतिक कैरियर में खलीफत-असहयोग एक ‘अपवाद’ भूल रही, क्योंकि यह एक खालिस मजहबी-साम्राज्यवादी आंदोलन था। जिसका उद्देश्य थाः तुर्की में विश्व-इस्लाम के खलीफा सुलतान की गद्दी और उस का साम्राज्य बचाना।

सच्चे इतिहासकारों के अनुसार “खलीफत जिहाद” में शामिल होकर उसके लिए तरह-तरह की मनगढ़ंत दलीलें, भाषण, आदि देकर गाँधीजी ने विचित्र सैद्धांतीकरण किये। उसके जो दुष्परिणाम हुए, उनका हिसाब करना कठिन है। वस्तुतः उस एक ही प्रसंग में गाँधीजी के सत्य और अहिंसा की भी सारी कलई खुल जाती है। न तो गाँधीजी ने सत्य, अहिंसा के सिद्धांतों को समझा था, न उनके पास कोई ‘अपना’ सिद्धांत था, न ही वे इस्लामी या तुर्की इतिहास जानते थे। 1919 से 1922 ई. के बीच उनकी कही, लिखी तमाम बातें ही इस का सर्वोत्तम प्रमाण हैं।

उदाहरण के लिए, गाँधीजी ने खलीफत को “मुसलमानों की गाय” की संज्ञा दी थी। यानी, जैसे हिन्दू लोग गाय को पूज्य मानते हैं, उसी तरह मुसलमान अपने खलीफा की सत्ता को! यह कितनी अनर्गल बात थी, यह इसी से साफ है कि पूरे मुस्लिम विश्व में कहीं खलीफत की परवाह न थी। उलटे, ठीक अरब, मक्का-मदीना के मुसलमान तुर्की खलीफा से छुटकारा चाहते थे। खुद तुर्क जनता भी ‘खलीफत’ का भार उठाने से मुक्ति चाहती थी। यह स्वयं अतातुर्क कमाल पाशा ने कहा! जो तब चमत्कारी तुर्क नेता थे। उन्होंने ही, यानी स्वयं तुर्कों ने, पहले ऑटोमन-तुर्क सल्तनत और फिर खलीफत को 1924 ई. में खत्म कर डाला। ऐसे बड़े काम एक दिन में नहीं होते, उसकी तैयारी और मनोभाव पहले से बने होते हैं। यानी, जब भारत के कुछ कठमुल्ले मुस्लिम तुर्की सल्तनत व खलीफत बचाने का जोश भर रहे थे और गाँधी जी उसके पक्ष में चित्र-विचित्र भाषण दिए जा रहे थे, उसी समय अरब और तुर्की में उसे खत्म करने की भावना थी।

वैसे भी, खलीफत जिहाद के दोनों उद्देश्य – तुर्की में खलीफत तथा तुर्क साम्राज्य को बनाए रखना – सामान्य बुद्धि से भी समर्थन योग्य नहीं थे। तुर्क साम्राज्य बनाए रखने का मतलब था कई देशों को तुर्की का उपवनिवेश बनाए रखना। पर गाँधीजी को न वास्तविकता की परवाह थी, न सत्य की। वे बचपन से ही दिन-दिन अपने मन मे आती बातों और तरंगों को ही सिद्धांत, दर्शन, इतिहास, आदि मानने के आदी थे। उसी झक में उन्होंने तुर्की ऑटोमन साम्राज्य की 1914 ई. वाली सीमाएं पुनर्स्थापित करने की शेखचिल्ली माँग को ‘मुसलमानों की गाय’ जैसी भावुक संज्ञा दे डाली। इस से अधिक मूढ़ संज्ञा की कल्पना करना कठिन है। चाहे गाँधी में ऐसी अतिरंजना, कपोल-कल्पना, निराधार भावुकता, नियमित मिलती है। उनके वाङमय को कहीं से भी कुछ दूर तक विस्तार से पढ़कर इसे साफ देखा जा सकता है। किन्तु यदि कारण अज्ञान न था, तो गाँधीजी निश्चित-रूपेण असत्य का सहारा ले रहे थे जब उन्होंने खलीफत समर्थन के लिए अपने अखबार “यंग इंडिया” (2 जून 1920) में तर्क दिया, “मेरे विचार से तुर्की का दावा न केवल नैतिक और न्यायपूर्ण है, बल्कि पूरी तरह न्यायोचित है, क्योंकि तुर्की केवल वही चाहता है जो उस का अपना है। और मुस्लिम घोषणापत्र में निश्चित घोषणा की गई है कि गैर-मुस्लिम और गैर-तुर्की जातियाँ अपने संरक्षण के लिए जो गारंटी आवश्यक समझें, ले सकती हैं, ताकि तुर्की के आधिपत्य के अंतर्गत ईसाई अपना और अरब अपना स्वायत्तशासन चला सकें।”

इस प्रकार, गाँधी तुर्की-इस्लामी साम्राज्यवाद का खुला समर्थन करते हुए उसे ‘न्यायपूर्ण’ ठहरा रहे थे! उस तर्क से भारत भी अंगेजों का ‘अपना’ था और हमें स्वतंत्रता की कोई जरूरत न थी! वहीं आगे गाँधी यह भी लिखते हैं कि “मैं यह विश्वास नहीं करता कि तुर्क निर्बल या अक्षम या क्रूर हैं।” यह भी घोर अज्ञान या साफ झूठ है, क्योंकि कुछ ही पहले (1915 ई.) ही तुर्कों ने भयावह आर्मीनियाई नरसंहार किया था, जिसमें आर्मीनिया की पूरी आबादी को खत्म या मार भगाने का लक्ष्य था। उसमें दस से पंद्रह लाख आर्मीनियाई लोगों का तुर्कों ने निर्मम सफाया किया था। गाँधी उन्हीं तुर्कों के दयालु होने का सर्टिफिकेट दे रहे थे! ( जारी… )

— डॉ. शंकर शरण (३० अक्तूबर २०१९)