स्वास्थ्य

खुश होना और खुश रहना इतना कठिन तो नहीं।

“ख्वाहिश सचमुच कितने बेसिर-पैर के हैं होते
कोई जूते को रोता है ,किसी के पैर नहीं होते। ”

आज की पीढ़ी जब भी अपनी तुलना अपने पूर्वजों से करती है तो उनको ज्यादा खुश और दीर्घायु पाती है और स्वयं को अवसाद से ग्रस्त और जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ। हालाँकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि वर्तमान पीढ़ी के पास खुश रहने के साधन कम हो गए हैं या उनके पास स्वस्थ रहने के लिए उपचार मौजूद नहीं हैं। विज्ञान और तकनीक ने इतनी प्रगति कर ली है कि खुश रहने के लिए कितने की मनोरंजक साधक के आविष्कार कर लिए गए हैं और चिकित्सा विज्ञान ने कितनी ही जानलेवा बीमारियों से निजात दिलाई है और हमारे पास जेनेरिक मेडिसिन के तहत सस्ते दामों पर दवाइयाँ उपलबध हो रही हैं ,लेकिन फिर भी हमारे बच्चों को बचपन में ही चश्मा पहनना पड़ रहा है ,ज़रा सी मुसीबत पर घबराकर ख़ुदकुशी जैसे जघन्य अपराध को अंजाम देने से भी वो चूकते नहीं, रिश्तों की समझ लगभग ख़त्म होती जा रही है तभी एक ही परिवार में से ही बलात्कार जैसी कितनी खबरें भी सामने आ रही हैं , जिम्मेदारियों का अहसास कम होता जा रहा है जिससे उनका सामाजिक तानाबाना टूटता जा रहा है। और इन सब वजहों से आज की पीढ़ी मानसिक असंतुलन और अवसाद जैसी गंभीर बीमारियों से जूझती नज़र आ रही है।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, भारत की 18 वर्ष से अधिक 10.6 प्रतिशत आबादी यानी करीब 15 करोड़ लोग किसी न किसी मानसिक रोग से पीडि़त हैं। हर छठे भारतीय को मानसिक स्वास्थ्य के लिए मदद की दरकार है।जनगणना 2011 के अनुसार, भारत में लगभग 22 लाख 28 हजार मनोरोगी हैं जबकि लांसेट की रिपोर्ट कहती है कि भारत में मनोरोगियों की संख्या 16 करोड़ 92 लाख है।वहीं डब्ल्यूएचओ के अनुसार, भारत की 135 करोड़ की आबादी में 7.5 प्रतिशत (10 करोड़ से अधिक) मानसिक रोगों से प्रभावित हैं। अध्ययन बताते हैं कि 2020 तक भारत की 20 प्रतिशत आबादी किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त होगी। 15.29 आयु वर्ग में आत्माहत्या की दर भी सर्वाधिक होगी। स्मरणीय हो कि लगभग एक मिलियन लोग हर साल आत्माहत्या करते हैं। इस तरह की बीमारियों की बढ़ती संख्या में अवसाद को तीसरा स्थान दिया गया है जिसके 2030 तक पहले स्थान पर पहुँचने की उम्मीद है।जहाँ तक मनोचिकित्सकों का सवाल है तो भारत में एक लाख की आबादी पर 0.3 मनोचिकित्सक, 0.07 मनोवैज्ञानिक और 0.07 सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वहीं विकसित देशों में एक लाख की आबादी पर 6.6 मनोचिकित्सक हैं। मेंटल हॉस्पिटल की बात करें तो विकसित देशों में एक लाख की आबादी में औसतन 0.04 हॉस्पिटल हैं जबकि भारत में यह 0.004 ही हैं।

इनके प्रमुख कारणों को जानेंगे तो आप दंग रह जाएँगे। ये कारण कोई बाहरी समस्या नहीं बल्कि आंतरिक खोखलापन ,सामाजिक विघटन और पारीवारिक रिश्तों में आई कड़वाहट है। मनोवैज्ञानिक कारण तो आज के समय में मनोरोग की मुख्य वजह मानी जा रही है। उदाहरण के लिए आपसी संबंधों में टकराहट, किसी निकटतम व्यक्ति की मृत्यु, सम्मान को ठेस, आर्थिक हानि, तलाक, परीक्षा या प्रेम में असफलता इत्यादि।सामाजिक-सांस्कृतिक हालात भी ऐसे रोगों से व्यक्ति को प्रभावित कर रहे हैं जिसके मूल में व्यक्ति का सामाजिक एवं मनोरंजक गतिविधियों से दूर होना, अकेलापन, राजनीतिक, प्राकृतिक या सामाजिक दुर्घटनाएँ (जैसे कि लूटमार, आतंक, भूकंप, अकाल, बाढ़, सामाजिक बोध एवं अवरोध, महँगाई, बेरोजगारी) इत्यादि की बढ़ती प्रवृत्ति है।अन्य कारणों में सहनशीलता का अभाव, बाल्यावस्था के अनुभव, खतरनाक किस्म के विडियोगेम, तनावपूर्ण परिस्थितियाँ और इनका सामना करने की असमर्थता मनोरोग के लिए जिम्मेदार मानी जा रही हैं। स्मरणीय हो कि वे स्थितियाँ, जिन्हें हल कर पाना एवं उनका सामना करना किसी व्यक्ति को मुश्किल लगता है, उन्हें तनाव का कारक माना जाता है। तनाव किसी व्यक्ति पर ऐसी आवश्यकताओं व मांगों को थोप देता है जिसे पूरा करना व्यक्ति के लिए मुश्किल हो जाता है। नतीजतन इन मांगों को पूरा करने में लगातार असफलता मिलने पर व्यक्ति में मानसिक तनाव पैदा हो जाता है और वह मनोरोग का शिकार हो जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन(डब्लू एच ओ ) स्वास्थ्य को परिभाषित करते हुए कहटा है -” स्वास्थय शारीरिक ,मानसिक और सामाजिक ख़ुशी का अहसास है और इन में से एक भी अवयव गैर-मौजूद है तो स्वस्थ मनुष्य की कल्पना असंभव के बिलकुल नजदीक है। ” भारत में इन तीनों अवयवों को कभी भी प्राथमिकता नहीं मिलती और यूँ कहें कि स्वास्थ्य हमारे चर्चा में कहीं आता ही नहीं तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। मानसिक तनाव या समाज से इतर व्यवहार को पागलपन कहा जाता है और उस मनुष्य को इलाज के बदले हेय की दृष्टि से देखा जाता है और उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। पूरे विश्व में सबसे ज्यादा विकलांगों की सँख्या भारत में पाई जाती है और कितने विकलांग जन्म से ही इस दोष को झेलते हुए बड़े होते हैं क्योंकि उनके परिवार में स्वास्थ्य को कभी चर्चा का विषय माना ही नहीं गया या बिलकुल नकार दिया गया। इन सबसे बड़ी बीमारी है – सामाजिक असंतुष्टि और उससे उत्पन्न खुशियों की बेइन्तहाँ कमी। ख़ुशी की कमी की सबसे बड़ी वजह है वृहत महत्वाकांक्षा। महत्वाकांक्षा की परिधि इतनी बड़ी हो गई है कि मनुष्य अपने मर्म को भूल गया है , वो असली में क्या था, वो अहसास होना बंद हो गया है। और अंत में बचता है सिगरेट की तरह जला हुआ राख में परिणत खोखला इंसान। और खुश न रह पाने की दूसरी सबसे बड़ी वजह है खुद को समय ना दे पाना। आप जब तक खुद को समय नहीं दे पाएँगे ,यह नहीं जान पाएँगे कि आप ज़िंदगी से चाहते क्या हैं और आपके ज़िंदा रहने का मक़सद क्या है ;तब तक ख़ुशी आपके लिए केवल एक मृगतृष्णा ही लगेगी। ख़ुशी अगर भौतिक वस्तुओं से मिलनी होती तो आज का मानव ब्रह्माण्ड का सबसे ज्यादा खुश इंसान होता लेकिन अफ़सोस ऐसा बिलकुल भी नहीं है।

“आपकी सफलता और खुशी आपके अंदर है।जब खुशी का एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है लेकिन हम अक्सर बंद दरवाजे की तरफ काफी देर तक देखते रहते हैं और जो हमारे लिए खुला है उसको नहीं देखते।” – हेलेन केलर

खुश रहना ,किसी के लिए भी स्वयं की इच्छा पर निर्भर करता है। कोई झोपड़ी में भी इतना खुश है कि ज़िंदगी उससे खुश होने का सबक ले रही है।और कोई महल में इतना दुखी है कि महल की परिभाषा गलत साबित हो रही है। कोई एक टाँग के साथ ओलम्पिक मैडल जीतकर अपनी,अपने सामाज और अपने देश को खुशियां बाँट रहा है तो तो कोई दोनों पैर के होते हुए भी मानसिक पंगु बनकर स्वयं के साथ दूसरों को भी कष्ट पहुँचा रहा है।इस साल के पद्म सम्मान विजेता मोहम्मद शरीफ साहब कितनी ही अनक्लेम्ड लाशों को उनकी परिणति तक पहुँचा कर एक सामजिक चेतना ला रहे हैं और ख़ुशी का उत्सर्जन कर रहे हैं तो कोई अल कायदा जैसा आतंकी संस्था दुःख के बादल घेरता रहता है। अतः खुश रहना हमारी अपनी चॉइस है ;यह किसी पर थोपा नहीं जा सकता। आप खुश रहना चाहेंगे तो दुनिया की कोई ताकत आपको दुखी नहीं कर सकती। भूटान विश्व का बहुत ही छोटा राष्ट्र है लेकिन खुशियों के पैमाने पर वह अव्वल आता है। जबकि अमेरिका इतना बड़ा देश है लेकिन कितने ही उलझनों से घिरा हुआ रहता है।

खुश रहिए और दूसरों को खुश रखिए। दुनिया को ख़ुशी की बहुत आवश्यकता है। अगर यह कम होती चली जाएगी तो मनुष्य भी एक दिन वस्तुओं की तरह किसी समन्दर में प्लास्टिक की बोतल की तरह अन्यमनस्क तैरता हुआ नज़र आएगा ,जो मानव प्रजाति की सबसे बड़ी हार होगी।

“जिस काम से खुशी मिलती है वो करो। पूरा ब्रह्माण्ड आपके लिए वहाँ दरवाजे खोल देगा जहाँ पहले दीवारें थी।” – जोसफ केम्पबेल

— सलिल सरोज

*सलिल सरोज

जन्म: 3 मार्च,1987,बेगूसराय जिले के नौलागढ़ गाँव में(बिहार)। शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011), जीजस एन्ड मेरी कॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)। प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका"कोशिश" का संपादन एवं प्रकाशन, "मित्र-मधुर"पत्रिका में कविताओं का चुनाव। सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश। आजीविका - कार्यकारी अधिकारी, लोकसभा सचिवालय, संसद भवन, नई दिल्ली पता- B 302 तीसरी मंजिल सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट मुखर्जी नगर नई दिल्ली-110009 ईमेल : salilmumtaz@gmail.com