पर्यावरण

आओ सहेजें अपनी जैव-विविधता को …

हर वर्ष 21 मई को हम ‘संवाद और विकास के लिए विश्व सांस्कृतिक विविधता दिवस’ मनाते हैं और ठीक उसके अगले दिन ‘अंतराष्ट्रीय जैविक विविधता दिवस’. दोनों में समानता है ‘विविधता’ जो की हर दृष्टिकोण से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. यहाँ तक की पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व भी इसी विविधता पर ही निर्भर है. कहा जाता है की विचित्रता ही प्रकृति का धर्म है और इस जगत में कोई भी दो वस्तुएं भी समान नहीं हैं ना ही कोई दो अणु अथवा परमाणु. इसी विविधता की महत्ता समझते हुए यूनाइटेड नेशंस द्वारा 22 मई, 2000 को अंतराष्ट्रीय जैविक विविधता दिवस मनाया जाना तय हुआ और इस वर्ष की थीम है ‘हमारी समस्याओं का हल प्रकृति में है’. देखा जाय तो यह सही भी है क्यूंकि माने या ना माने हमारी अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर हैं.
जैव-विविधता अर्थात समस्त जीवित प्रजातियाँ जिसमें वायरस,बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवों से लेकर समस्त पेड़-पौधे और जन्तुजगत सम्मिलित है. सभी का जेनेटिक मेटेरियल एक दूसरे से पूर्णतया अलग है और यह भिन्नता ही प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने अस्तित्व को कायम रखने की क्षमता देती है. इस जैव-विविधता का ना केवल अस्तित्विक महत्त्व है बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, औषधीय और सौंदर्यात्मक महत्त्व भी है. इसके साथ ही यह जैव-विविधता जल, वायु और मृदा की गुणवत्ता को भी कायम रखती है.
   भारत देश में तो भौगोलिक विविधता (पहाड़, नदियाँ, पठार, मैदान, समुद्र, नम भूमि, घाटियाँ, मरुस्थल इत्यादि) के साथ ही समृद्ध जैव-विविधता और सांस्कृतिक विविधता जिसमें भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन, भोजन आदि सभी बदलता हुआ दिखता है,मिलती है. हमारा राजस्थान भी एक जैव-विविधता समृद्ध राज्य हैं जहाँ पश्चिम में थार के मरुस्थल और दक्षिण में पर्णपाती वन मिलते हैं और इसी भौगोलिक विविधता के कारण यहाँ दो हजार से अधिक प्रकार के पौधे और लगभग 800 प्रकार के प्राणी मिलते हैं जिसमें अधिकतम 510 प्रकार के पक्षियों की प्रजातियाँ भी शामिल हैं. यहाँ की विशिष्टताओं को लेकर ही राज्य पशु- चिंकारा और ऊँट, राज्य पक्षी – गोडावण, राज्य वृक्ष – खेजड़ी और राज्य पुष्प – रोहिड़ा को घोषित किया गया है. यहाँ 500 से अधिक लोक-औषधीय महत्त्व के पौधे भी मिलते हैं जिसमें कुछ महत्त्वपूर्ण पौधे है जैसे सालर, धावड़ा, टेसू, सेमल, सहजन, गुग्गल, गोखरू, सफ़ेद मूसली, हिंगोट, अश्वगंधा, ग्वारपाठा, खारा जाल, कलिहारी, चिरमी इत्यादि. पौधों की इस विविधता का प्रभाव मानव जीवन के कई पहलुओं पर पड़ता है जैसे व्यक्ति और स्थानों के नाम भी पौधों के नाम पर रख दिए जाते हैं जैसे, तुलसीराम, कमल, शेफाली, जूही, अर्जुन,बांसवाड़ा, खैरवाड़ा आदि. यहाँ तक की हमारे लोक-गीतों, पहेलियों और लोक-कहावतों में भी पौधों को प्रदर्शित किया जाता है. दुल्हन के हाथों में लगने वाली मेहंदी और घर के आँगन को सुन्दर बनाने से लेकर, विभिन्न त्योहारों में भी पौधों का उपयोग होता है और यह जैव-विविधता हमारी सांस्कृतिक विविधता को भी समृद्ध करती है.
    इसी जैव-विविधता को सरंक्षित करने हेतु राजस्थान में तीन राष्ट्रीय पार्क (रणथम्भोर, केवला-देव और मुकन्दरा हिल्स), 26 वन्य-जीव अभ्यारण्य और दस सरंक्षित रिज़र्व क्षेत्र बनाये गए हैं जहाँ के प्राकृतिक वातावरण में विभिन्न पादप और जंतु प्रजातियाँ सुरक्षित निवास करती है. सरंक्षण के इन विभिन्न प्रयासों के बावजूद भी जैव-विविधता को सर्वाधिक खतरा मानवीय गतिविधियों से ही है. इसके अलावा अवैध शिकार, व्यवसायिक उपयोग के लिए अत्यधिक दोहन, प्रजातियों के प्राकृतिक आवासों का खत्म होना, रासायनिक प्रदुषण, स्वदेशी प्रजातियों के स्थान पर विदेशी प्रजातियों का प्रतिस्थापन और कई बार प्राकृतिक आपदायें जैसे बाढ, भूकंप, ज्वालामुखी, सुनामी आदि के कारण भी जैव-विविधता को बहुत नुक्सान पहुँचता है जिसके कारण आज विश्व की कई प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं अथवा लुप्त होने के कगार पर है और संकटग्रस्त की श्रेणी में है. जो प्रजातियाँ विलुप्त हो गयी है वह इस पृथ्वी के लिए एक अपरिवर्तनीय हानि है. जैसे यूनाइटेड नेशंस द्वारा बीस मई को ‘विश्व मधुमक्खी दिवस’ घोषित किया गया है क्योंकि मधुमक्खियों की कई प्रजातियाँ खतरे की श्रेणी में हैं और ये हमारे जीवन के लिए अत्यंत महत्व रखती हैं. अगर ये नहीं होंगी तो परागण के अभाव में हमारी कई फसलें चौपट हो जाएँगी जिसका सीधा प्रभाव अर्थव्यवस्था के बिगड़ने और अपराधों के बढ़ने पर होगा और विश्व शांति नष्ट हो जाएगी.
  आज कोरोना वायरस की महामारी के दौर में एक विचारणीय प्रश्न यह भी है की अत्यल्प प्रदुषण वाले जैव-विविधता समृद्ध भारत के सिक्किम, नागालैंड, लक्ष्यद्वीप और विश्व में अमेज़न के जंगलों में इस वायरस का प्रकोप अभी तक नहीं हो पाया है जिसके समस्त पहलुओं पर शोध किया जाना चाहिए की क्या समृद्ध जैव-विविधता इसका एक कारण तो नहीं है.
   इसलिए जो भी जैव-विविधता अभी तक बची है उसको सहेजने का कार्य हमें ही करना है. अपने छोटे-छोटे प्रयासों से यह निश्चय ही संभव है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण एक स्वस्थ और ईको-फ्रेंडली जीवन शैली को अपनाना है और कम संसाधनों को उनकी सर्वाधिक क्षमता का प्रयोग करते हुए इस्तेमाल करना भी जरुरी है. केवल जैव-विविधता पार्क बना कर अथवा पूर्णतया सरकार पर निर्भर होकर प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं की जासकती. इसमें हम सबका सहयोग अपेक्षित हैं क्योंकि हम सब भी तो अपनी-अपनी विविधता के साथ इसी जैव-विविधता का एक हिस्सा हैं. राजस्थान में तो समुदाय भी प्रकृति का सरंक्षण करने में सहयोग देते आये हैं और बिश्नोई समुदाय की मिसाल किसी से छुपी नहीं है. तो आइयें हम सब एक संकल्प लें की हम अपनी तरफ से जैव-विविधता को सहेजने का पूर्ण प्रयास करेंगे तथा औरों को भी इसके लिए प्रेरित करेंगे.
डॉवर्तिका जैन

डॉ. वर्तिका जैन

सहायक आचार्य, वनस्पति शास्त्र, राजकीय मीरा कन्या महाविद्यालय, उदयपुर-313001, राजस्थान