लघुकथा

दो जून की रोटी

लॉकडाउन में दो जून की रोटी की तलाश भी पूरी नहीं हो पा रही यह सोचता हुआ रामदयाल अपनी रिक्शा लेकर मंदिर वाले मार्केट के पास खड़ा था,तभी बूढे सुधाकर बाबू जो अपने घर जाने के लिए रिक्शे की तलाश में थे,आकर रिक्शे में बैठ गए।
‘कहाँ चलना है बाबूजी रिक्शे वाले की आँखें चमक उठी। सामने टेंपों स्टैंड के बाद वाली गली तक ले चलो सुधाकर बाबू ने व्यग्रता दिखाते हुए कहा।

रामदयाल को अपने बच्चों के चेहरे अपने नजरों के सामने घूमते दिखाई दे रहे थे ,जिन्हें मुश्किल से दो जून की रोटी मिल पा रही थी। वह सोच रहा था यदि एक दो सवारी और मिल जाए तो आज सबको पेट भर खाने को मिल जाएगा। इधर  सुधाकर बाबू भी सोच रहे थे बेचारे रिक्शावाले की हालत कितनी दयनीय है,बिना इसके स्वाभिमान को आहत पहुँचाते हुए कैसे मदद करूं ।

तभी सुधाकर बाबू ने कहा ” क्या तुम रेलवे कॉलोनी तक चलोगे ।”
रामदयाल ने कहा ” बाबूजी उधर  जाने में पौन घंटे लग जाते हैं,और सवारी भी नहीं मिलती” ये पगडंडी पकड़ लीजिए पाँच मिनट में पहुँच जायेंगे।

सुधाकर बाबू ने पाँच सौ का नोट निकाल कर उसके हाथ में पकड़ा दिया और तेजी से आती एक टेंपो में बैठ गए। लॉकडाउन में पतली गली में एक आध टैंपो दिख जाती थी।
रामदयाल  ने पुकारते  हुए कहा ” बाबूजी छुट्टे नहीं है।”
सुधाकर बाबू ने कहा ” रख लो मेरे पास भी नहीं  है ,यह टैंपो छूट गयी तो परेशानी होगी।”

रामदयाल ने  सोचा ईश्वर भी किस रूप में प्रकट होते हैं,उसने हाथ जोड़ लिए।
टेंपो आगे बढ चुकी थी  सुधाकर बाबू को संतोष मिला  ,रिक्शेवाले को दो जून रोटी  की रोटी मिल जाएगी।

रामदयाल के आखिरी शब्द उसके कानों तक पहुँची  हे भोले बाबा ….

निभा कुमारी 

निभा कुमारी

शिक्षा - स्नातक हिन्दी भाषा में पुस्तक प्रकाशित। अनेक पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है । राजनगर , मधुबनी , बिहार