कहानी

कहानी – चित्रकार

वह अधेड़ व्यक्ति, अब ठीक उस समय पार्क में आने लग पड़ा है, जब जिं़दगी के विभिन्न रंगों में रंगी इंसानी जिं़दगियाँ वहाँ अपने अपने ख़्वाबों को सहलाने आती हैं। उस अधेड़ व्यक्ति की लंबी सफेद दाड़ी, फटे हुए पुराने से कपड़े उसे पहली नज़र में एक बेचारा या गरीब व्यक्ति साबित करने के लिए काफी है, उसका कोट चाहे पुराना हो, मैला भी है पर अगर उस कोट से उसकी शखसियत मालूम करने को कोई जरा चिंतन करे तो फिर उसे सिर्फ यही मान सकता है कि वह कभी अमीर ज़रूर रहा होगा। उसके जूते पर जैसे वर्षों पहले कभी पाॅलिश हुआ था। कुल मिलाकर वह किसी भी रूप में आकर्षण पैदा नहीं करता था जबकि वह जिस बेंच पर बैठा होता उसके सामने से पार्क की सुंदर टाइलों की बनी पगडंडी पर जैसे ज़िंदगियों से भरा स्वर्ग ज्वार भाटे की तरह लहरें उप्तन्न करता था। अपनी खूबसूरती और हुस्न में मदमस्त अमीर घरों की औरतें, युवतियाँ वहाँ शाम को टहनले आती हैं। वह ठीक शाम के समय अब वहाँ आने लग पड़ा है। यही वह समय है जब सूर्य की तपस बहुत दूर जा चुकी होती और मौसम की शीतलता में यहाँ बेपनाह ख़्वाबों और खूबसूरती से भरे चेहरे पार्क की खूबसूरती को और निखार देते।
आखि़र जिस जगह पर बैठने लगा है वह पार्क की पगडंडी से कुछ दूर और पार्क की बाहरी चार दीवारी के बिल्कुल करीब है। पर उसके वहाँ होने से सबसे अधिक खलल उन लोगों के दिमाग पर पड़ता है जिनके लिए वह बेंच एक शानदार एकांत है। उसी बेंच के दोनों ओर सिल्वर आॅक के दो बडे़ पेड़ हैं और उन पेड़ों की शाखाओं में जैसे वह बेंच वहाँ होते हुए भी नहीं होता, पर ठिगने अधेड़ व्यक्ति की वजह से वह बेंच अब कुछ लोगों के लिए बेकार की वस्तु बन चुका होता, ये बेंच उन खास मजनुओं, पार्क के इर्द गिर्द के प्रेमियों की स्वप्नगाह होते हुए भी अब एक उजाड़ टापू बन चुका होता। अगर उन प्रेमियों में से बहुत सारे उसे घृणा से देखते होंगे तो भी कोई बुरी बात नहीं। उस अकेले अधेड़ व्यक्ति ने उनके ख़्वाबों के नखलिस्तान को उजाड़ रेगिस्तान में बदल दिया है, पर वे तो ख़्वाबों के शहजादे होते हैं जो हमेशा सुंदर सफेद घोड़ों पर सवार होते हैं तो उनके लिए किसी और खूबसूरत बेंच को ढूँढना कोई मुश्किल काम नहीं।
जब हर जगह सूर्यास्त की संतरी सुनहरी रोशनी फैल रही होती तो उस बेंच की ओर बदरंग कोहरे की चादर पसर चुकी होती। इस कोहरे में भी वह अधेड़ व्यक्ति अपनी टिमटिमाती बुझे दीपक सी आँखों से कुछ न कुछ ढूँढने की कोशिश करता रहता। आखिर उसे अब क्या चाहिए, वह इन अलहड़ ज़िदगियों के बीच कौन से सपने के टूटे अवशेषों को दफ़नाने आता है। वह अपने सन्नाटे से भरे शरीर की ज़मीन पर कौन से मौन शब्दों की खेती उगाना चाहता है। पर ऐसा लगता है कि किसी नन्ही सी ख़्वाइश ने एक मीठी बाँसुरी की धुन सुनाकर उसे अपने पीछे-पीछे चलने को मजबूर कर दिया है पर क्या उसे नहीं पता कि आगे गहरी कंदरा है जिसमें अँधेरा भी पाँव रखने से पहले किसी रोशनी की ऊँगली पकड़कर चलना सीखता है। उसकी भूखी नज़रें हमेशा पार्क में घूमने वालों पर होती जैसे वह मानो किसी शिकार को ढूँढ रहा है। आखिर वह चाहता क्या है? कौन है? कहाँ से आता है? इस बारे में सेाचने के लिए अभी तक कोई भी इच्छुक नहीं हुआ है। ये तो विभिन्न रंगों में रंगी दुनिया का महासागर है जिसमें नाव लेकर खुद को ही उतरना पड़ेगा। लेकिन वह थक सा गया है उसके शरीर के भीतर दबी आवाज़ें अब मौन होकर शरीर के मरते तंतुओं की तरह निरंतर मर रही है। लेकिन कभी ये आवाजें़ मंदिर की दर्जनों घंटियों के स्वर पैदा करती थी।
वह अब सिर को ज़मीन पर झुका कर बैठा है और चलता भी ऐसा ही, पर कभी वह गर्वीली चाल चलता था और अपना सिर हवा में ऊँचा रखता था। वे उसके जीवन के सुनहरे दिन थे उसके पास एक ऐसा आसमान था। जहाँ से रोज सुबह सूर्य की रश्मियों संग सपने चहँु ओर फैलते थे, सैंकड़ों पगडंडियाँ उभरती थी जो उसे अद्भुत और सफलता की मंजिलों तक ले जाती थी।
उसके सामने कई क्षितिज बनते थे वह तब एक मशहूर चित्रकार था, लोग उससे सवाल करते थे, उसकी रंगों की जादूगरी को देखते थे और उसकी बनाई पेंटिंग्स को पैसा देकर खरीदते थे। तब उसके हाथों में रंगों से खेलने का जुनून था, उसके सपनों में एक बदहवास दौड़ थी, कई लक्ष्य उसके दरवाजे़ पर शोर करते थे, तब उसे लगता था कि वह कोई चमत्कारी व्यक्ति हो। वह अपनी प्रशंसा के नशे में चूर रहता था। ज़िंदगी तब उसके लिए फूलों की खुशबू से भरे बिस्तर बिछाती थी लेकिन उसके कारोबारी साथी ने धोखा दिया। यह ऐसा धोखा था जिसमें उसकी जिं़दगी तहस नहस हो गई, उसके बनाए चित्र उसके हालात को देखकर रोने लगे। वह वर्षों पागलखाने में रहा है, उसके परिवार में बस उसकी पत्नी और एक बेटी थी।
उसकी उजाड़ बगिया में किसी अंजान परिंदे ने रुख किया। वह बेंच से उठ खड़ा हुआ। एक लड़की ठीक उसके बेंच के सामने आ गई थी। मानो उसे शिकार मिल गया हो। उसे ऐसे लगा जेसे उमंग से भरी युवती उसके सामने खड़ी हो गई हो और कह रही है, ‘‘मुझे अपनी तस्वीर बनवानी है, हे चित्रकार।’’
वह एकदम युवती के सामने आकर बोला,‘‘ तुम्हारे लिए मैं ऐसी तस्वीर बनाऊँगा, जिसमें संगीत हरपल बजता रहेगा। एक ऐसी तस्वीर जिसमें धुंधलके से निकलता हुआ क्षितिज नज़र आएगा, नीले सागर के आसमान पर लाखों कश्तियाँ उड़ती नजर आएँगी। दुख के काले बादल के पीछे सफेद बादलों का झुरमुट दौड़ता हुआ दिखेगा। अशंात सागर में उठी लहरों को जैसे कोई वृद्ध पुचकार कर शांत कर रहा होगा। आओ चाँदनी, बस मुझे आखिर बार तुम्हारी रश्मियाँ उधार में चाहिए, मैं इन रशिमयों के घोड़ों पर सवार होकर बहुत दूर निकल जाऊँगा।’’
युवती जैसे उसकी बोतों के सम्मोहन में वहीं जड़ हो गई। वह बोली,‘‘वाह जी तो आप चित्रकार हैं, पर आप मेरा ही चित्र क्यों बनाना चाहतें हैं? आप न तो मुझे जानते हो, यहाँ तो कई लोग है उनकी तस्वीर बना दो वे खुश होकर पैसे भी देंगे।’’
‘‘मैंने तुम्हें पहचान लिया है। मैं सचमुच तुम्हारे लिए ही एक पेंटिग बनाना चाहता हूँ और चाहता हूँ कि तुम यह पेंटिग मुझे अपना पिता मान कर ग्रहण करो।’’
‘‘ये कैसी बातें कर रहे हो आप अंकल, मैं आपको पिता कैसे मान सकती हूँ और मैं तो आपको जानती भी नहीं, हाँ आपको यहाँ बैठे देखती हूँ कई दिनों से, मेरी माता घर में मेरा इंतज़ार कर रही होंगी और आप ये पागलों जैसा शौक पाल बैठे हो, मैं आपको जानती नहीं और आप एक ही मुलाकात में ये उल्टा पुल्टा काम करवाना चाहते हो। कहीं आप पागल तो नहीं हो गए हो।’’
चित्रकार ने ठंडी साँस ली। मौसम की तपस अब वैसे भी धीमी हवा में बदल रही थी पर अभी पर ज़मीन से तपस उसके नंगे पांवों के रास्ते शरीर में प्रवेश कर रही थी।
‘‘मेरे मकसद को समझो, मैंने अपने उस साथी से वादा किया है जो इस वक्त एक बड़े शोरूम में कीमती पेंटिग्स का मालिक है।
‘‘क्या वादा किया है।’’ युवती ने जिज्ञासा से कहा।
‘‘मैंने वादा किया है कि मैं आखि़र फिर से एक शानदार पेटिंग बनाकर उसे दूंगा और उस पेंटिग के बदले में वह मेरी बेटी की पेंटिग मुझे वापिस करेगा, जो उसके पास गिरवी पड़ी है।’’
युवती को उस बूढ़े चित्रकार पर विश्वास नहीं हुआ पर फिर भी वह संकोच से बोली, ‘‘आपकी हर बात पर मुझे हैरानगी हो रही है और आपकी हर बात काल्पनिक और पागलपन सी भरी है।ऐसा लगता है जैसे आप मुझे किसी चक्रव्यूह में फसा रहे हैं।’’
‘‘नहीं बेटी, यह मेरे जीवन की त्रास्दी है। मैं दिन -रात चित्र बनाने में डूबा रहा, मुझ पर जुनून सवार था। मैं अक्सर इस जुनून में अपना घर बार भूल जाता था। मैं रात को लेट घर आता। मैंने उस कपटी का सारा शोरूम चित्रों से भर दिया। अगर तुम इस शहर के सबसे बड़े शोरूम का पता जानती हो तो तुम वहाँ जरूर जाना, वहाँ तुम्हें एक से एक बेहतरीन पेंटिंग्स मिलेंगी, उनमें आधी से ज्यादा मैंने बनाई हैं, पर ये बात अभी तक सिर्फ कुछ लोग जानते हैं। क्योंकि उन पर सिर्फ उसी प्रसिद्ध व्यक्ति के हस्ताक्षर हैं। जिन्होंने उन्हें मुझसे कोड़ियों के भाव खरीदकर अपनी दुकान में सजाया है बेटी।’’
‘‘आप अंकल मुझे बेटी क्यों कह रहे हो बार – बार।’’
‘‘अब तुम चाहती हो तो नहीं कहूँगा, पर तुम्हें देखकर मुझे अपनी बेटी नज़र आ रही है।’’
‘‘अब आप हद पार कर रहे हैं,’’ कोमल ने थोड़ा गुस्से से बोला।
वह नहीं चाहती थी कि कोई पागल सा फटेहाल व्यक्ति उसे पल में ही बेटी बना ले, और उसकी बातों से शिष्टाचार कम और षड़यंत्र अधिक नज़र आ रहा है। वह बोली,‘‘आप अपने आप को देखो, आपका हालत बहुत बदतर है यह पार्क शहर के अमीर लोगों की सैर गाह है इसके रंग में भंग न डालो और ऊपर से आप…। कोई आपकी शिकायत कर देगा और पुलिस आपको यहाँ से खदेड़ देगी।’’
अधेड़ कलाकार की आँखों में दुख की नदी बहने लगी।‘‘ऐसी बातें न करो, क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘आप नाम को छोड़ो, और मैं अब आपसे ज़्यादा बात नहीं कर सकती, लोग हमें घूर रहे हैं, वे मुझ पर भी शक करेंगे। मैं तो अक्सर यहाँ आती रहती हूँ। आप मेरा आना जाना बंद करा देंगे।’’
युवती ने उसकी हर बात पर अविश्वास जाहिर करके उसे सनकी मान कर वहाँ से चले जाना बेहतर समझा। ‘‘अच्छा अंकल, मैं आप की इन मनघंड़त बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही हूँ इसलिए मैं अब जा रही हूँ, शायद अब मैं फिर से यहाँ न आऊँ, मेरी ये मजबूरी है। आप कृप्या किसी और को यह कहानी सुनाना, अगर किसी को आप में दिलचस्पी हुई तो। वैसे भी मौसम ने करवट बदल ली है बारिश होने वाली है आप अपने घर निकल जाइए।’’ और युवती अपने रास्ते निकल गई।
‘‘कौन होगा वह? ऐसा क्यों कहता है?’’ उधर कोमल के मन में अंसख्य विचारो की घंटियाँ बजती रहती पर वह अब अपनी माँ को परेशान नहंी कर सकती। माँ धागा फैक्टरी में काम रकती है और वह और उसकी माँ एक किराए के कमरे में अपना जीवन गुजार रही है। बचपन की समृतियों में उसके मन मंदिर के कोने में अपने पापा की एक छवि सागर की रेत की तरह आकृति बनाती है पर पल में ही कोई बेरहम लहर उस रेत पर बनी आकृति को तहस नहस कर देती है। पर उसके पापा तो बचपन से किसी ओर ग्रह पर चले गए हैं उसकी माँ यही कहती है कोमल बेटी वह तेरे पापा, इस कलयुग के प्रपंचों से बसी दुनिया में अपनी सच्ची कला के दम पर नहीं जी सके और हमें छोड़कर दूर किसी ओर ग्रह पर बस गए। कोमल के मन में तो अपने पापा की छवी वर्षों से ही किसी ओर ग्रह की ओर उड़ गई है तो फिर वह किसी और व्यक्ति को अपने पिता की छवि में नहीं समा सकती। मैं कल फिर जाऊँगी और उस पगले से अधेड़ व्यक्ति को साफ़ कह दूँगी कि नहीं उसे उसकी कलाकृति बनाने की कोई ज़रूरत नहीं। फिर कोमल के मन के एक कोने में बसी घाटी में छोटी पगडंडियों पर भटकती एक नन्हीं लड़की ने पुकारा, शायद उसका परिवार होगा कभी, मेरे जैसे बेटी होगी, तभी वह अपनी बेटी की छवि मुझमें देख रहा है, ठीक वैसे ही जैसे मेरा मन भी किसी व्यक्ति में अपने पापा की छवि ढूँढता है।
अगले दिन बूढ़ा चित्रकार तो अपनी विशेष जगह पर बैठ गया था। उसने वहीं बेंच चुना था जिस पर अब कई दिनों से उसका अधिकार हो गया है, अब बच्चे, औरतें भी उस कोने वाले बेंच की ओर नहीं जाते क्योंकि उनकी माताओं ने उन्हें यह आदेश कर दिया है कि उस ओर जाने में ही उनका भला क्योंकि वह व्यक्ति पागल किस्म का लगता है यह फिर शायद वह बच्चों को उठाने वाला भी हो सकता है।
लेकिन वो युवती जिसका नाम कोमल था, वह उस चित्रकार की दबी ख़्वाइशों में सुलग रही चिंगारी को ढूँढने नहीं आई थी। चित्रकार की आँखे आसमान की ओर उठने का प्रयास करती और फिर ज़मीन में धंस जाती, वह किसी अनजानी खुशी की बनी गेंद को पाॅर्क में अपने फटे जूते की ठोकर से एक कोने से दूसरे कोने तक भगाना चाहता था ठीक वैसे ही जैसे बच्चे फुटबाॅल को ठोकरे मारते उसके सामने से भागते हुए निकल जाते थे।
उसकी आँखों में डूबते सूर्य की सुनहरी किरणें शायद गलती से पड़ गई तो उसकी बुझी आँखों में चमक आने लगी। वक्त के पंख उसे उस दुनिया में ऊँगली पकड़कर ले जाने को पुचकार रहे थ,े जिसे वह कब का छोड़ चुका है। उस दुनिया में रोशनी अँधेरे से खेलती थी जैसे बिल्ली अधमरे चूहे से खेलती है लेकिन कभी अँधेरा इतना गहरा हो जाता था कि वहाँ रोशनी पहुँच नहीं पाती थी।
‘‘नहीं, वह अब शायद नहीं आएगी।’’ बेंच पर बैठे अँधेरों के साए से दबे चित्रकार ने सोचा। वह किसी युवती को अपनी बेटी कैसे मान सकता है पर उससे रहा नहीं गया, वह उठा और बाजार की ओर निकल गया। जब वह लौटा तो उसके पास एक पेंटिग बनाने का पूरा सामान था। उसने बिना उस युवती के कैनवास पर ब्रुश चलाना शुरू कर दिए थे। दूर से देखने पर लोगों को यही लगता जैसे कोई पागल फटेहाल व्यक्ति पेंटिग बनाने का मूर्खता पूर्ण अभिनय कर रहा है। लोग उसकी ओर कुछ ध्यान देते तो उनके अंदर जैसे नफरत के बीज अँकुर बनने की चुलबुलाहट पैदा करते। जब कुछ भटके से विचार बिजली की तरंगांे से मस्तिष्क तक पहुँचने की कोशिश करते तो वे अपनी आंखों को पल में ही नया दृश्य बाँटने का अपना हुनर पेश कर देते। यह इंसानी फितरत है जिसे इंसान नही समझते है पर फिर भी वह एक पल के अपने इस प्रपंच से उन आवारा विचारों की अपनी घाटी में अपनी उपस्थिती दर्ज करवाने की गुस्ताखी ज़रूर करता। अँधेरे की भारी तहांे ने अपने आसमान को जैसे ही अपने सिर पर टाँगा तो वह बूढ़ा चित्रकार वहाँ से अपना सारा सामान उठाकर उसी अँधेरे की पगडंडी में कहीं खो गया। उसे बिना रोशनी के घूमती आँखें फिर कहीं ढूँढ नहीं पाई। फिर सारा सामान उठा कर वह पार्क से गायब हो गया। वह तीन दिन पार्क में नहीं आया।
और कोमल भी पार्क में नहीं आई। वह उस अधेड़ चित्रकार से डर रही थी। वह अपने आप को किसी अदृश्य जाल में फँसते हुए महसूस कर रही थी। पर उसका एक मन उसे फिर से पार्क में उस फटेहाल की ओर खींच रहा था।
एक दिन कोमल ने इधर – उधर नज़रें बचाते हुए पार्क के पीछे वाले गेट से प्रवेश किया। सामने वही अधेड़ था, पर ये क्या, वह आज किसी और रूप में था। उसकी बढ़ी हुई बेतरतीव दाड़ी कटकर चेहरे को साफ सुथरा बना चुकी थी। कोमल को उसके करीब जाते ऐसा लगा जैस वह किसी और व्यक्ति के पास जा रही है। उसके कदम कुछ पल रुके पर दूर से उसकी आवाज़ आ गई आ जाओ…. वे… बेटी शब्द उसके मुँह से पूरा न निकला। बाल कटे हुए, संवरे, नए कपड़े पाँवों में नए जूते। पतलून और पेंट में आज सचमुच का ही चित्रकार लगा रहा था। उसका रूप में मोहकता उत्पन्न हो रही थी। चाहे उसकी आँखों के इर्द गिर्द काले स्याह गड्डे अभी भरे नहीं थे, पर चेहरे पर मुस्कान की नदियाँ बह रही थी। मुझे पता था तुम ज़रूर आओगी, यह चित्रकार और उसकी बनाई तस्वीर का सबंध है जो तुम्हें यहाँ खींच लाया है और वह बेंच के साथ टिकाई बडी सी पेंटिग को उसके हाथों में थमाते बोला, ये तस्वीर मैं तुम्हें भेंट करना चाहता हूँ, बस इसे घर जाकर देखना। नहीं, मैं इसे अभी देखना चाहती हूँ। अच्छा अब तुम यही चाहती हो तो मुझे पहले यहाँ से जाने दो, पता नहीं तुम इस तस्वीर को घर ले जाओगी या फिर यहीं पार्क के बाहर के कूढ़ेदान में फेंक दोगी, तुम तो मुझे पहले से ही पागल समझती हो। और मैं तो एक पागल चित्रकार हूँ मैं अपनी कला की यह दुर्दशा नहीं देख सकता। वैसे सच बताएँ कोमल के मन में अभी भी शंका के बादल भरे थे। क्या इस कलाकृति में कुछ असभ्य तो नहीं मैं आप पर विश्वास नहीं कर सकती, जिस समाज और संस्कृति के चक्रव्यूह में मैं और मेरी माँ रहती है वहाँ हमारी प्रवृति ऐसी ही है। तुम मेरे जाने के बाद देखना ओर उसके नीेचे मेरा नाम भी है, तुम पुलिस को बता सकती हो अगर कुछ गलत हुआ तो और पार्क के बाहर बड़ा कूढ़ेदान भी तो है। मैंने सब कुछ साफ़ कर दिया है। अच्छा अब इसे स्वीकार करो, मेरा जाने का समय हो गया। इससे पहले की अँधेरा मुझे घेरे, मैं किसी दीए की तलाश मैं निकल लेता हँू।’’
तस्वीर को बड़े संकोच से कोमल को पकड़ते हुए उसने कहा।
‘‘ठीक है अंकल, मैं अपनी माँ को तस्वीर को दिखाकर कुछ फ़ैसला करुँगी।’’
‘‘ठीक है आज मुझे बड़ी शांति मिल रही है बेटी’’ और वह तस्वीर पकड़ाकर पल में ही पार्क के पिछले गेट से गायब हो गया।
कोमल हाथों में तस्वीर उठाए अपने घर को दौड़ी। उसकी माँ ने जैसे ही कोमल के हाथों में तस्वीर देखी तो तस्वीर पर लिपटे कवर को झट से खोला। हवा के झोंके से तस्वीर पर लिपटे पतले कागज़ का कवर फड़फड़ाने लगा। तस्वीर की एक झलक देखकर शांति ‘कोमल की माँ’ एक दम से जड़ हो गई थी। कोमल ने माँ के चेहरे के हाव भाव पर उभर आए अंसख्य दृश्यों को पढ़ते ही कहा, ‘‘क्या हुआ माँ मैंने कुछ गलत कर दिया है?’’
‘‘बेटी कोमल, यह तुम्हारी बचपन की तस्वीर है और इसे बनाने वाले तुम्हारे पापा, आखि़र यह तस्वीर तुम्हें वे दे ही गए, उन्होंने हमें ढूँढ लिया है बेटी।’’

— डाॅ. संदीप शर्मा

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857