लघुकथा

आत्मनिर्भर

 

कई दिनों की भारी बरसात की वजह से वह पूरा क्षेत्र जलमग्न हो चुका था । नजदीक ही बहनेवाली नदी अपने किनारे तोड़कर आसपास के गाँवों में जर्जर घरों को लीलती हाहाकार मचाती जलप्रलय जैसा दृश्य उपस्थित कर रही थी । लोग अपने अपने घरों की छतों पर खड़े भोजन व पानी की चिंता में बेबस से नीचे पानी में खड़े अपने मवेशियों को बाढ़ के पानी से संघर्ष करते देख रहे थे ।

घनघोर काली घटा घिर आई थी । दोपहर में ही शाम जैसे अँधेरे का अहसास हो रहा था कि अचानक फुलमतिया की गर्भवती बहू को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई । घर में कोई पुरुष था भी नहीं । उसका बेटा सुरेश और उसके पति दोनों नौकरी के सिलसिले में शहर में रहते थे । इस संभावित परिस्थिति से निबटने के लिए सुरेश ने अपने पड़ोसी की ऑटो रिक्शा बहुत पहले से ही तय कर रखी थी लेकिन इस भारी बाढ़ में ऑटो चलती भी तो कैसे ? घरों का निचला हिस्सा पूरी तरह जलमग्न हो चुका था ।

अडोस पड़ोस के लोग भी फुलमतिया की परेशानी से खुद को परेशान महसूस कर रहे थे और अपने अपने स्तर से उसकी मदद करने का प्रयास कर रहे थे लेकिन सब कुछ लील जाने को आतुर बाढ़ की उस भीषण विभीषिका के आगे सब खुद को बेबस व लाचार महसूस कर रहे थे । लोग सरकारों को कोसते हुए ईश्वर से इस प्रकोप से निजात दिलाने की प्रार्थना कर रहे थे ।

फुलमतिया की बहू असह्य पीड़ा से गुजर रही थी कि तभी सामने वाले घर से एक युवक विनोद पानी में तैरते हुए फूलमतिया के घर की तरफ बढ़ा । उसके एक हाथ में रस्सी थी जिसका दूसरा सिरा उसके पीछे आ रहे ट्रैक्टर के बहुत बड़े ट्यूब से बँधा हुआ था ।

कुछ देर बाद फुलमतिया और उसकी बहू उस ट्यूब के ऊपर रखी तख्ती पर बैठे थे और विनोद सहित गाँव के कुछ अन्य युवक उस तैरते हुए ट्यूब को रस्सी के सहारे खिंचते हुए नजदीकी शहर की तरफ बढ़ रहे थे जहाँ सरकारी अस्पताल की सुविधा उपलब्ध थी ।

सभी ग्रामवासी विनोद के सूझबूझ की प्रशंसा कर रहे थे और फुलमतिया ने तो उसके ऊपर आशीर्वादों की झड़ी ही लगा दी थी । हौले से मुस्कुराते हुए विनोद के मुँह से बस इतना ही निकला ,” मैंने कुछ भी अलग से दिमाग नहीं चलाया ! बस हर साल के अपने अनुभव का फायदा उठाया । सरकारें जब प्राकृतिक आपदाओं के समक्ष आत्मसमर्पण कर दें तो अपनी सहायता के लिए हमें स्वयं तैयार हो जाना चाहिए । इसी कड़ी में मैंने बरसात शुरू होते ही इस ट्यूब में हवा भरवाकर रख लिया था । हर वक्त सरकारी मदद की आस करना ठीक नहीं , हमें आत्मनिर्भर बनना ही होगा । ”

राजकुमार कांदु
मौलिक / स्वरचित

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।