लघुकथा

जैसा बोओगे , वैसा काटोगे

‘ जो बोओगे, वही काटोगे ‘

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धरती का कोई भी कोना कुदरती विनाशलीला से अछूता न था । कई महीनों तक कोरोना जैसी घातक महामारी का दंश झेलने के साथ ही अब कई देश बाढ़ की विभीषिका झेलने को अभिशप्त थे तो वहीं कुछ देश अन्य प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहे थे ।

बदल बदल कर कई समाचार चैनलों को देखने के बाद देश के अलग अलग हिस्सों में हो रही तबाही का मंजर देखकर अमर का मन खिन्न हो उठा ।

बिस्तर पर लेटे हुए अमर की आँखों के सामने बड़ी देर तक तबाही के ये दृश्य नाचते रहे और इसी के बारे में चिंतन मनन करते उसकी आँख लग गई ।

कुछ देर बाद उसे यूँ महसूस हुआ जैसे धरती मैया साक्षात उसके सामने आ खड़ी हुई हों और उससे कह रही हों,” अब क्यों रो रहे हो तुम सब ? विकास के नाम पर मेरे जिस्म पर अनगिनत जख्म देते हुए तुम लोगों ने मेरे बारे में सोचा ? अंधाधुंध पेड़ों की कटाई करते हुए पर्यावरण के बारे में सोचा ? बेसुमार ध्वनि पैदा करनेवाली मशीनें बनाते हुए तुम लोगों ने ध्वनि प्रदूषण के बारे में सोचा ? विषैली वायु वातावरण में उगलनेवाली मशीनें बनाते हुए तुम लोगों ने वायु प्रदूषण के बारे में सोचा ? जहरीले नालों का मुख नदियों में छोड़ने से पहले तुम लोगों ने जल प्रदूषण के बारे में सोचा ? एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में एक से बढ़कर एक घातक व विध्वंसक हथियार बनाते हुए कभी तुम लोगों ने ये सोचा कि अगर गल्ती से भी कभी इनका इस्तेमाल हो गया तो क्या होगा पूरी मानव जाति का ? फिर आज ये रोना धोना व पछतावा क्यों ? जो बोओगे , वही तो काटोगे ? ”

घबरा कर अमर की नींद खुल गई लेकिन बड़ी देर तक उसकी कानों में गूँजते रहे ‘ जो बोओगे .. वही तो काटोगे !

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।