कहानी

समझौता

बस स्टैंड पर बसों का आना-जाना लगा हुआ था। सीमा अपना समान संभालती किसी तरह बेटियों का हाथ पकड़कर खिंचती जा रही थी।उसे लगता था दिल्ली जैसे बड़े शहर में चोरी की बहुत घटनाएं होती है। पिछले ही साल की तो बात है, जब किसी ने उसका बैग चुरा लिया था।जब वह कैंटीन पर चाय लेने के लिए गई थी,जब वापस लौटी तो एक बैग गायब था।उसने आसपास के लोगों से पूछताछ की थी, पर कुछ भी पता नहीं चला सका था।उल्टे कुछ यात्रियों ने उसे सलाह दे डाली थीं।बहन जी,अपने सामान का ख्याल खुद रखना चाहिए था।अब आपको लापरवाही भारी पड़ेगी।कोई कह रहा था कि उसमें कितने रुपए थे,बहन जी?
एक बुजुर्ग महिला का व्यवहार बड़ा ही आत्मीयता पूर्ण था।उनके बाल पूरी तरह सफेद थे,चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई थी। जो उनकी उम्र को बता रही थी, वह गरीब सत्तर वर्ष की तो जरूर होंगी।
उन्होंने मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते हुए कहा,बेटी किराया-भाड़ा तो है तेरे पास,मेरी आँखों में बेबसी के आँसू झलक पड़े।इससे पहले मैं कुछ बोल पाती,अगर नहीं तो चिंता करने की कोई बात नहीं हैं,बेटी।मैं मदद कर दूँगी,
आँसू पोछ लो।
मैं मन ही मन सोच रही थी कि इस दुनिया में आज भी मदद करने वाले हाथ हैं तभी तो दुनिया चल रही हैं।नहीं माँ जी उस बैग में ऐसा कोई कीमती सामान नहीं था। बस उपहार स्वरूप मिली कुछ किताबें थी।अच्छा माँ जी चलती हूँ,मेरी बस आ गई हैं। मैं दौड़ कर बस में चढ़ गई और खिड़की वाली सीट पर पास बैठ गई थी।क्योंकि मुझें बस में तेल चढ़ता था और उल्टी भी हो जाती थी?
पर सफर में आज मैं पूरी तरह सतर्क थी।यह बस गाजियाबाद जाएगी,मैं सम्भल कर बैठ गई।अतीत से वर्तमान में लौट आई।आज भी मैं गाजियाबाद जा रही थी।मैं बेटियों का हाथ पकड़ कर बस में चढ़ गई। बच्चों के साथ सफर करना कितना कठिन होता हैं?और बस में चढ़ते ही,बच्चों की माँगे शुरू हो जाती हैं।माँ,मुझें खट्टी-मीठी गोलियाँ दिलवा दो,चुप करो तुम।
तुम्हें हमेशा बाहर की चीजें ही चाहिए,पर बच्चों की जिद के आगे तो हमेशा झुक जाना पड़ता हैं।उनकी आँखों में आँसू थे,अपने मन को समझाया।सीट पर ढंग से बैठ जाओ,अभी दिलवा दूँगी, तुम्हें खट्टी-मीठी गोलियाँ।
मैं भी तो अपनी माँ से जिद करती थी, हर बात के लिए। शादी के लिए भी तो मैंने ही जिद की थी।माँ तो मेरे इस फैसले से बहुत नाराज थी। वह नहीं चाहती थी मेरा अंतरजातीय विवाह हो।पर पापा ऊँच-नीच के खिलाफ थे वह हमेशा हमें इंसानियत का पाठ पढ़ाया करते थे।वह कहते थे जात-पात कुछ नहीं है। इससे समाज में सिर्फ दूरियाँ ही पैदा होती है।
पापा का ही समर्थन था, जो मैं अमित से शादी करना चाहती थी।पर अब लगता है, काश माँ की बात मान लेती तो आज यह दिन ना देखना पड़ता,मुझें। बच्चे चिल्लाए,माँ बस चल पड़ी है।दिलवा दो ना गोलियाँ,मैं वर्तमान लौट आई।
मैं अमित को समझ नहीं पाई थी।वह बड़ा ही दिल-फेक आशिक निकला।वह किसी एक औरत का बनकर नहीं रह सकता था।शादी के दो साल तक सब कुछ ठीक चला।वह मेरा बहुत ख्याल रखता था। ऑफिस से समय पर घर आता था। घर के काम-काज में भी मेरा साथ देता।मैं खुद को बहुत भाग्यशाली समझती थी जो मुझें अमित जैसा पति मिला।
पर जब एक के बाद एक लड़की हुई,वह बहुत चिड़चिड़ा हो गया था। बात-बात पर ताने मारता था। क्या इस घर में सिर्फ लड़कियाँ ही पैदा करोगी?और पता नहीं क्या-क्या बकता रहता था।अब तो वह शराब भी पीने लगा था। रात को खूब पीकर आता।दरवाजे पर ही गाली-गलौज शुरू कर देता था। मैं तंग आ गई थी,इस रोज-रोज के क्लेश से।बेटी हो रही थी तो क्या सारा दोष मेरा ही था?पर कहती किसे वह तो कुछ सुनने को तैयार नहीं था।मैं भी इस तरह की बातें करके क्लेश नहीं बढ़ना चाहती थी।इसलिए चुप रह जाती थी।
मम्मी,क्या अब हम हमेशा के लिए नानी के पास रहेंगे?बेटी के इस प्रश्न ने मुझें झकझोर कर रख दिया था।चुप करो
अपनी गोलियाँ खाती रहो,मेरा दिमाग मत खाओ।पर बेटियाँ गलत क्या कर रही थी,सच ही तो था?
अमित अब मेरे साथ रहना नहीं चाहता था।उसे बेटा चाहिए था,जो मेरे हाथ में नहीं था।पर उसे कैसे समझाती,अब तो उसके व्यवहार में बहुत फर्क आ रहा था।बस यही कहता था तुमनें मेरा जीवन बर्बाद कर दिया है।चली जाओ यहाँ से, जब पापा को अमित के बारे में बताया तो वो बिल्कुल चुप हो गए।पर माँ ने मुझें खूब खरी-खोटी सुनाई।मुझें तो पहले से ही अमित पसंद नहीं था।
अब रोने-धोने से क्या मिलेगा? जिस रिश्ते में प्यार और सम्मान ही नहीं हैं,उसे निभाया नहीं जा सकता।तुम मेरे पास रहो,अब और समझौता नहीं,बहुत सह लिया तुमनें।
समझौता ही तो किया था अमित ने,जमीन-ज्यादाद बेटियों के नाम कर दी थी।बस वह मुझें नहीं देखना चाहता था। मैंने भी मन ही मन समझौता स्वीकार कर लिया था।उसे छोड़ कर आ गई थी।हम सभी को जीवन में समझौते करने पड़ते हैं।जीवन रूकता नहीं है। समझौता करना भी जीवन का एक अहम पहलू है।मैंने भी समझौता कर लिया था,अपने लिए और अपनी बेटियों के लिए।

राकेश कुमार तगाला

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