लघुकथा

बस ! अब और नहीं …!

” तो क्या सोचा है तुमने गरिमा ? “
” सोचने की जरूरत मुझे नहीं , तुम्हें है अयान !”
” क्या चाहते हैं मेरे घरवाले ? यही न कि तुम निकाह से पहले इस्लाम कुबूल कर लो ! इसमें बुराई क्या है जो तुम मान नहीं रही हो ? “
” मैंने प्यार तुमसे किया है अयान , तुम्हारे धर्म से नहीं ! फिर हमारे प्यार के बीच ये धर्म की दीवारें व शर्तें क्यों अयान ?”
” कहते हैं प्यार के लिए तो प्रेमी दुनिया छोड़ने को भी तैयार हो जाते हैं और एक तुम हो कि अपना धर्म छोड़ने को भी तैयार नहीं ! “
” मैं तो तैयार हूँ अयान तुम्हारे लिए अपना घर द्वार , माँ बाप रिश्तेदार सब छोड़ने को ,लेकिन तुम तो अपने माँ बाप की उँगली तक छोड़ने को तैयार नहीं । ऐसा कैसे चलेगा अयान ? तुम्हें मेरी भावनाओं की भी तो कद्र करनी होगी न ? ” कहते हुए गरिमा ने रोषपूर्ण नजरों से अयान को घूरकर देखा और आत्मविश्वास से अपने कदम घर की तरफ बढ़ाते हुए बोली ,” प्यार के नाम पर कुर्बानी देने का ठेका हम बेटियों ने ही नहीं लिया है अयान ! अब तुम जैसे लड़कों को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए ! “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।