कविता

संजीवनी बूटी

पुस्तकालयों में बिखरी हुई हैं , हजारों हजार किताबें
बिखरी हुई किताबें
तड़प रही हैं किताबें—-
कोई हाथ इन्हें छूए
कोई आंख इन्हें पढ़े
कोई दिमाग इन्हें सोचे !

पुस्तकालयों के अंधेरों में
पड़ी हुई हैं लावारिस सी किताबें
इनकी आंखों से गायब हो रही है चमक
हो रही हैं पुरानी कुछ किताबें, गिर रही है उन पर
समय की धूल !

किताबों से सबसे ज्यादा डरते हैं तानाशाह
करते हैं कोशिश इन्हें नष्ट करने की !
पर नहीं आएंगी उनके हाथ
उनके विरुद्ध काम आने वाली, किताबें
किसी दुर्घटना से पहले
किताबों की दुनिया में
बचा ली जाएंगी किताबें
समझदार हाथों द्वारा !

ये किताबें तो हैं हमारी हमसफर,

हमकदम होकर खोल देती हैं पूरा ब्रह्मांड,

भर देती हैं ज्ञान का अपार भंडार,

आच्छादित कर देती हैं विश्व को,
नए आलोक से
ले जाती हैं नए क्षितिजों पर
संजीवनी बूटी बन कर
हाँ, किताबें ही तो हैं
संजीवनी बूटी !

— डाॅ मनोरमा शर्मा

डॉ. मनोरमा शर्मा

प्रोफैसर(सेवा निवृत्त) हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला पता - फ्लैट 4, बलाक 5A, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, संजोली, शिमला -6, 171006. हिमाचल प्रदेश।