लघुकथा

“मेरी जान बच गई!”

 सोनीपत में हुई एक नेता की रैली से लौट रहा था हरमिंदर ! बस ने उसे मुख्य सड़क पर ही छोड़ दिया था, जहाँ से उसका गाँव लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर था।
मुख्य सड़क से न जाकर हरमिंदर खेतों की मेंड़ों पर चलते हुए अपने घर की तरफ बढ़ने लगा।
मौसम पहले से ही खराब था। अचानक बड़ी बड़ी बूँदें बरसने लगीं। चारों तरफ फैले हरे भरे खेतों के बीच उसे नजदीक कोई आसरा नजर नहीं आया। थोड़ी दूरी पर एक बड़े से पेड़ के नीचे अपने पड़ोसी सुखविंदर के खेत में बने ट्यूबवेल के छज्जे के नीचे वह खड़ा हो गया।
बरसात खत्म होते ही, वह निकला और घर पर पहुँच गया।
घर पर टीवी चल रही थी जिसमें वक्ताओं के बीच जोरदार बहस चल रही थी। बहस का मुद्दा था प्रधानमंत्री जी का अपनी सुरक्षा को लेकर दिया गया तथाकथित वक्तव्य ‘जिंदा हूँ मैं..!’
 बाहर बरामदे में उसे देखते ही उसकी पत्नी ने
 ‘वाहे गुरु ‘ का शुकराना अदा किया और कहा, “तुस्सी आ गए जी !”
 उसे प्यार भरी नजरों से देखते हुए हरमिंदर बोला, ” हाँ, परमिंदर ! वाहे गुरु दा लख लख शुकर है, मैं जिंदा वापस आ गया। मेरी जान बच गई !”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।