सुनो ! शाखाएं सदैव जाती है ऊपर की ओर जड़ रहती है बंधी धरती से नहीं उखाड़ सकते तुम जड़ो को ठीक मैं भी हूँ एक जड़, किन्तु ! इतना ही है भेद तुम मुझे उखाड़ सकते हो मेरी जड़ नहीं, क्योंकि ? जड़ ही उपजाती है कितने ही पेड़ ओजस्वी पेड़ तुम चाहकर भी […]
Author: रितु शर्मा
कविता
सोचा नही था कि यू भी होगा अचानक बहुत देर से छेड़छाड़ कर रही थी एक बडे पहाड़ से एक दिन पहाड़ आ गिरा ऊपर सारे का सारा संभल सकी ना कही किसी तरफ कुछ नजर ना आए जिधर देखूँ पहाड़ पहले मेरा सर पहाड़ मे धस गया अब पहाड़ सर मे घुस रहा है […]
कविता — बुतसाज
वो बुतसाज मेरे नज़दीक आया मुझे लगा…. अब वो मुझ मे से मुझे तराशेगा…. “आह! कितना सुंदर पत्थर !” मेरे सीने पर भारी बूट के साथ अपना दाहिना पैर रखते वो चहका और सिगरेट सुलगा बाएं पैर पर खड़ा दाएं घुटने पर कोहनी टिका लम्बे- लम्बे कश भरने लगा धुएं के बादल मेरे जिस्म से […]
कविता – बादशाह का डर
वो रोज़ ही मुझे देख मुस्कुराता,उछलता हाथ चूमता और फिर आगोश मे ले लेता क्योकि वो मेरे रूह और जिस्म के बेहद करीबी है… आज वो मुझे देख न मुस्कुराया न उछला बस अकबकाया और दौड़ गया उल्टे पॉव…. क्योकि आज मेरे हाथों मे फूल नही किताब रूपी खंजर था… चाहे मेरा करीबी एक सुशील […]
एहसास के दरीचे से…
खूबसूरत सा वो जाफ़रानी गोला धरा को चूम जैसे ही विदा लेने आता है वृक्षों के झुंड तले टिमटिमाने लगते हैं नटखट से जुगनूं ढलती हुई शाम की रूपहली किरणें रात के आँचल में सितारे टाँकने लगती हैं निर्मल झील के वक्ष पर आ तैरने लगता है बादलों संग आँख मिचौली खेलते विशाल आकाश के […]
कविता
बहुत मोहतबर और सूझवानों की महफिल से आई थी बहुत कुछ सुना विचारशील तर्कशील तर्कयोग्य मेरे तर्को को भी तो सराहा गया खुश थी सुधिजनों की संगत कर परन्तु रात मुझे यह स्वप्न क्यों कर आया कि मै एक सरोवर मे से नहा कर निकली हूँ और मेरे तन से चिपकी हैं कई जोंक मुझे […]
वनवास
हमारी किस्मत ने अभी कुछ समय और वनवास भोगना है संघर्षशील इतिहास जो लिखना है झूठे प्रीतिभोज के परोसे थाल मे से भूखे पेट की अग्न को और थपथपाना है अभी सब्र संतोष का पहाड़ा पढ़ कर खोए सत्य को जो तलाशना है हमारी किस्मत ने अभी कुछ समय और वनवास भोगना है वो जो […]
कविता
धरती अपनी धूरी पर चक्कर लगाती है किसी को कोई एतराज नही होता धरती सूरज के इर्द गिर्द चक्कर लगाती है किसी को खबर तक नही होती परन्तु…. जब मेरे पेट की भूख नाभी की परिक्रमा पूरी करने के लिए करती है कोई न कोई हीला वसीला तो लोगों मे हाहाकार क्यो मच जाती है…!! […]
क्षणिका
साँपों की कूँज में आँखो की मूँद में पत्तों मे से गुजरती हूँ बनकर हवा खिड़की तो खोलो मेरा नाम तो बोलो छुपी नही कही मै वहॉ भी हूँ..!! — रितु शर्मा
कविता : आजादी
मै जब अपनी आजादी की चर्चा करती हूँ तो मै सरहदों पर लगी कांटेदार तार को सरकते या टूटते नहीं देखती न ही ग्लोब पर उकेरी लकीरों को गडमड होते देखती हूँ मेरी आजादी हथियारों के जखीरों से शुरू होकर इन्सानी लाशों पर झूलते जीत के झंडे पर नही लहराती मेरी आजादी तो मेरे घर […]