कविता

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

हर कदम पर मुझे दबाने का प्रयास किया जा रहा है

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

सुरक्षित मेहसूस नहीं करती हूँ मैं इस सभ्य समाज में

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

मुझे इस पुरुष प्रधान समाज में उपभोग कि वस्तु समझा जा रहा है

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

असमानता बढती जा रही है मेरे लिए

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

पुरातन काल से भेदभाव की शिकार हूँ मैं

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

हर एक गंदी नज़र से हर कदम पर बचना पड़ता है मुझे

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

ताने, घ्रणा, कुंठा सहकर मैं परेशान हूँ

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

मुझे बेशक कोख में ही मार दिया जाता है

फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

आज चाहे जो भी हूँ मैं पर मुझे गर्व है अपने आप पर

मुझे गर्व है एक माँ होने पर

मुझे गर्व है मुझसे भेदभाव करने वाले इस समाज का निर्माण करने पर

मुझे गर्व है एक नारी होने पर

चाहे कुछ भी हो जाए ये गर्व बना रहेगा ऐसे ही

समाज, चाहे हो भी सोचे जो भी कहे

मेरा मान मेरी नज़रों से गिरेगा नहीं

मेरा स्वाभिमान कभी डिगेगा नहीं

मेरा गर्व कभी कम नहीं होगा.

चाहे कुछ भी है, फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

-अश्वनी कुमार

अश्वनी कुमार

अश्वनी कुमार, एक युवा लेखक हैं, जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत मासिक पत्रिका साधना पथ से की, इसी के साथ आपने दिल्ली के क्राइम ओब्सेर्वर नामक पाक्षिक समाचार पत्र में सहायक सम्पादक के तौर पर कुछ समय के लिए कार्य भी किया. लेखन के क्षेत्र में एक आयाम हासिल करने के इच्छुक हैं और अपनी लेखनी से समाज को बदलता देखने की चाह आँखों में लिए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सक्रीय रूप से लेखन कर रहे हैं, इसी के साथ एक निजी फ़र्म से कंटेंट राइटर के रूप में कार्य भी कर रहे है. राजनीति और क्राइम से जुडी घटनाओं पर लिखना बेहद पसंद करते हैं. कवितायें और ग़ज़लों का जितना रूचि से अध्ययन करते हैं उतना ही रुचि से लिखते भी हैं, आपकी रचना कई बड़े हिंदी पोर्टलों पर प्रकाशित भी हो चुकी हैं. अपनी ग़ज़लों और कविताओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए एक ब्लॉग भी लिख रहे हैं. जरूर देखें :- samay-antraal.blogspot.com

2 thoughts on “फिर भी मुझे स्त्री होने का गर्व है!

  • कविता बहुत ही अच्छी है . जिस तरह इस्त्री का निरादर हो रहा है दुख्दाएक है लेकिन जब अपनी माँ को देखते हैं तो औरत लफ्ज़ के माने बदल जाते हैं कियों ?

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम विचार ! श्रेष्ठ कविता !!

Comments are closed.