कविता

मुझे जीना है,बनकर तुम्हारा

मैं जीना चाहता हूँ ………
इतनी ज्यादा शिद्दत से 
जिन्दगी की तलब कभी नहीं रही …. 
जानता हूँ कि आत्मा मरती नहीं….
जानता हूँ कि …..जीवन भ्रम है ……
जानता हूँ कि ….सब नश्वर है…..
पर मुझे जीना है भ्रम …..तुम्हारे साथ ……
मुझे जीनी है नश्वरता…तुम्हारे साथ….
मुझे जीना है जीवन रुपी स्वर्ग……..
मुझे जीना है स्वर्ग रुपी जीवन….
जी तो चुका हूँ कुछ भाग…..
चुरा तो लिए थे कुछ छण….
छीन तो लीं थीं कुछ खुशियाँ…
वो ही तो पल थे जब……….
पहली बार कुछ नहीं सोचा…
वो ही तो पल थे जब……….
स्वमं को ईश्वर समझा….
वो ही तो पल थे जब……….
काल भी मिटा न सका…
तुम्हारे नाखूनों के निशान
जो तुमने उकेर दिए थे
मेरे ह्रदय पर ….
जो पहुँच गए थे आत्मा तक…
जैसे तुम कह रहीं थीं….
कि मैं बस तुम्हारा हूँ
सिर्फ तुम्हारा……………
हां !!! मुझे जीना है……
अनंत तक….हमेशा…सदा..
हर वो पल, हर वो छण….
हर वो लम्हा, था जो साथ गुज़ारा
हां ! मुझे जीना है,बनकर तुम्हारा
हां ! मुझे जीना है,बनकर तुम्हारा

अभिवृत

One thought on “मुझे जीना है,बनकर तुम्हारा

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

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