तुमसे सच कहूँगी आज…..
निर्भया,
कैसे लिखूँ तुम्हारी कराह…..
कैसे लिखूँ तुम्हारी पीड़ा
तुम्हारी चीख़………
तुम्हारी पुकार…..
ह्रदय को चीर जाता है
तुम्हारा द्वन्द…..
एक साल हो गया ना आज
क्या जानना चाहती हो तुम
क्या बदला तुम्हारे बाद……………………………………….
कुछ भी नहीं शायद…..
आज भी कई विशेषज्ञ करेंगे चर्चा
कई विचारक करेंगे परिस्थिति का पुनरवलोकन…
आज भी पक्ष कहेगा कि
सुधरी है दशा……
आज भी विपक्ष…..निकाल कर दे देगा कई आंकड़े..
आज भी कुछ लोग जलायेगें मोमबत्तियां
निकालेंगे जलूस…………..
कोसेगें समाज को …….
निकालेंगे निष्कर्ष…..
यदि ऐसा होता तो वैसा होता …………..
हा हा हा हा हा……………………..
क्या बदला तुम्हारे बाद……………………………………….
कुछ भी नहीं शायद…..
वही डर है सबकी आँखों में……….
वही निरीहता है बस
वही विवशता स्त्री होने की
वही विवशता कि चर्चा में
पीड़िता के चरित्र का भी होगा आंकलन
वही ताने…..
वही सीने को कपडे के पार देखती आँखे
वही व्यंग्य ….कटाक्ष….वही सवाल
इतनी रात को क्योँ गयीं थी तुम
तुम तो सुन भी नहीं पाओगी अब
तुम्हारे बाद क्या हुआ
क्या बदला तुम्हारे बाद…………
कुछ भी नहीं शायद…..
तुमसे सच कहूँगी आज…..
निश्चित मेरे लिए बदला है
मैं भी डरने लगी हूँ बेटी को जन्म देने से………..
मैं भी डरने लगी हूँ बेटी को जन्म देने से………..
गंगा
गंगा बहन , कविता में औरत की मजबूरी और दुःख को डीटेल में बिआं किया है . यह भरून हतिआए कैसे बंद हो सकती हैं ? कोई भी बेटी किओं पैदा करें , कोई दाज की खातिर अपनी बेटी को किओं दुखी देखे ? जब कोई बुरी बात हो जाती है तो सभ पार्टिओं की और से बिआं आने लगते हैं , कुछ महात्मा लोग भी कहने लगते हैं वोह मुआफी मांग लेती , फिर अचानक सामान्य हो जाता है , फिर कोई नई बेटी की चर्चा होने लगती है . हमारा रिशिओं मुनिओं का देश किस तरफ जा रहा है ?
आपकी पीड़ा जायज है. समाज में बहुत सुधार की जरुरत है.
अच्छी कविता. मार्मिक भाव.