झुठला दो ये शायरी ! अगर झुठला सको !!
वो भूल जाते हैं उन्होंने गुलिस्तां में
एक ही रंग के फूलों की जिद की थी !
अब कब्र पर भी कांटे चढ़ा रहे है !
ए खुदा इतनी इज्जत भी न देना कि
कोई कहे जानवर दफनाये गए हैं !
ए खुदा वह ख़ुशी मत देना कि
कोई कहे हम उनसे कम आंके गए है !
बता दे की तेरे दर पे सब
इंसानों की कतारों में ही रहेंगे
कोई जानवर ये दावा न करें कि
धरती पर ये हमारे रिश्तेदार रहे हैं !
सबूत दिखाते रहे जिंदगी भर की
मेरे मजहब को तूने बनाया है
पता नहीं था कि जो मजहब न जानते थे !
वह जानवर भी तेरे बन्दे करार दिए गए हैं !!
क्यूँ दूर दराज के हम मजहबी के लिए
मैं कराह उठता हूँ ?
लेकिन पडोसी के जनाजे पर मैं
टस से मस तक नहीं होता हूँ !
क्यूँ जो सगा है उसके साथ
रिश्तों का झगडा है !
जो रिश्ते में नहीं उसके लिए
जमाने भर से बखेड़ा है
जो मुझे न समझ पाया
वो तुझे समझने का दावा करता है
क्यूँ तेरी ही तौहीन को
तेरी इबादत समझता है !
मत कर गुमां तेरे कद्रदानो पे ग़ालिब
हमने जुल्फों में लटकती गर्दने देखी हैं !!
ऐसे इल्म से मेरी रूह तो फ़ना हो चुकी
लेकिन अब तक मैंने अपनी लाश नहीं देखी है !!!
-सचिन परदेशी ‘सचसाज’
पढ़ कर बहुत अच्छा लगा …. उम्दा अभिव्यक्ति
बहुत अच्छी शायरी की है आपने आचार्य जी. बधाई.
अच्छी कविता , मज़ा आया