गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

वस्ल क्या देता हिज्र देता गया

डूबने को इक भंवर देता गया

बन नही पाया जो मेरा हमसफर

काली रातों का सफर देता गया

भटकने के वास्ते वो सुबहो शाम

अपनी गलियों की डगर देता गया

प्यास बुझने ही न पाये उम्र भर

प्यासा दिल प्यासी नज़र देता गया

खूब दी उसने निशानी प्यार की

दर्दे दिल दर्दे जिगर देता गया

बिछडने के वक्त कुछ देता गया

शेर लिखने का हुनर देता गया

ज़ी सकूँ और मर सकूँ आराम से

जाते जाते सूना घर देता गया

—– ‘उल्फ़त’

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • उल्फत जी , बहुत अच्छी ग़ज़ल है , आगे भी इंतज़ार रहेगा .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी ग़ज़ल, उल्फ़त जी. पढ़कर दिल खुश हो गया. आभार !

Comments are closed.