उपन्यास अंश

लघु उपन्यास : करवट (आठवीं और अंतिम क़िस्त)

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एक-एक थाल में दोनों ओर से लोग तिलक करने का सामान ले कर तैयार थे। अपने विशिष्ट अतिथि ठाकुर साहब और माता-पिता को डा. रामकुमार ने अपने हाथों से तिलक किया और उन्हें मुख्य द्वार पर लेकर पहुँचा जहां पर एक कन्या कैंची लेकर खड़ी थी। ठाकुर राजेन्द्र सिंह जी ने कैंची लेकर मुख्य द्वार के फीते को काटा चारों से ठाकुर साहब की जय जयकार होने लगी। साथ ही धनुवा और रधिया की भी जय-जयकार हो रही थी। आगे बढ़कर सभी को मिठायी खाने और भोजन के लिए कहते हुए अपने झोपड़ीनुमा मरीजों को देखने वाली जगह पर लेकर पहुँचा, जहां पर पहले उसने अपनी कुर्सी पर ठाकुर राजेन्द्र सिंह जी को बैठाया और बगल में अपने माता-पिता को बैठाया। वहीं पर इन सबको पहले नाश्ता, फिर मिठाई और भोजन भी कराया।

आज का दिन ठाकुर साहब रधिया और धनुवा के लिए एक न मिटने वाली खुशी थी जिसका सभी को रमुवा के बचपन से ही इन्तजार था। करवट पर करवट बदलते हुए बालक के द्वारा दूसरों के दुखों का निवारक डा. रामकुमार के रूप पाकर आज सभी खुश हो रहे थे। ग्रामवासियों के जीवन का सबसे बड़ा सपना आज साकार हो गया था कि उनके इलाज के लिए एक अस्पताल उन्ही के गांव में खुल गया था।

अभी रामकुमार बाहर आकर अपने मित्रों से मिलकर अपनी खुशी को बांट ही रहा था कि उसकी नजर मानसी बुआ और उनके परिजनों पर पड़ी तो खुशी का बाँध ही मानो टूट गया। उसने बुआ को बुलावा तो भेजा था, पर उनके आने की कोई उम्मीद नहीं थी। उन्हें अपने बीच पाकर बहुत ही खुश था। सभी को लेकर ठाकुर साहब के पास आया। वहां पहुँच मानसी बुआ ने बड़े भाई के पैरों को छूकर प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त किया और उत्सव का आनन्द लिया।

शंकर को लेकर उसने अस्पताल के सभी हिस्सों के साथ परिचय कराया। साथ ही उसने जब यह बताया कि अस्पताल के अधिकांश कर्मचारी गांव से रखे हैं तो एक बार तो शंकर को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि रामकुमार तुमने वास्तव में गांव और शहर के फर्क को मिटाया है।

धीरे-धीरे लोग समारोह से विदा की मिठाई को लेकर अपने घरों की जाने लगे। डा. रामकुमार लोगों को विदा दे रहा था। सभी अतिथियों को विदा करने के बाद वह अस्पताल के कर्मचारियों को भी विदा करके अपने घर की ओर चल पड़ा।

डा. रामकुमार अपने व्यस्त समय में थोड़ा सा समय निकाल कर ठाकुर साहब से रोज मिलकर उनके गठिया का इलाज करता और अपने ही हाथों से उनको नित्य व्यायाम कराता और उसके बाद ही अस्पताल जाता था। वहां पहुँचकर मरीजों की सेवा करने लगता था। उसकी कोशिश यही रहती थी कि सभी मरीज को ज्यादा से ज्यादा स्वयं ही देखभाल करता रहे। अस्पताल के कर्मचारी उसके व्यवहार का हमेशा प्रसन्न रहते थे।

गर्मी की तपिश से सभी परेशान थे। वह जेठ की तपती दुपहरिया थी। ऐसे मौसम में एक अमावस के रात की घटना है। हवा तो पुरवाई चल रही थी मगर आदमी हाय-हाय ही करता फिर रहा था। ठाकुर राजेन्द्र सिंह भी अपने दरवाजे पर बिछे तख्त पर रात का भोजन करके सो रहे थे। तभी उनको अचानक सीने में दर्द होने लगा। उन्होंने पास में सो रहे अपने हरवाहे (खेतों पर काम करने वाले) को रामकुमार को बुलाने के लिए तुरन्त भेजा। रामकुमार ने तुरन्त ही बिना समय बर्बाद किये उनको अपने अस्पताल पहुँचाया।

रामकुमार ने अस्पताल पहुँचकर जैसे ही ठाकुर साहब की जाँच करनी शुरू की, तो एकदम हतप्रभ रह गया कि अरे ये क्या, ठाकुर साहब की धड़कन तो बन्द हो गयी। सीने पर काफी दबाव डाल-डाल कर देख रहा था, परन्तु ठाकुर साहब के प्राण तो कब के निकल चुके थे। अब तो उसको डाक्टर बनाने वाले का खाली शरीर ही मात्र सामने पड़ा हुआ था। जैसे अस्पताल का फीता काटने वाले का जीवन ‘राधा चिकित्सा सदन’ पर ही रखा था।

रामकुमार की हालत अब पिता माता के रहते हुए भी अनाथ जैसी हो रही था। रामकुमार के साथ में आये हरवाहे ने रमुवा को सम्भाला। अस्पताल के कर्मचारी आदि की मदद से वह डा. रामकुमार को और ठाकुर साहब के शरीर को लेकर वापस गांव की ओर चल दिया। सूरज अपनी लाली फैला रहा था, मगर रमुवा को डा. रामकुमार बनाने वाला तो दुनिया छोड़कर जा चुका था। ठाकुर साहब का अन्तिम संस्कार हो जाने के बाद भी डा. रामकुमार शोक से बाहर नहीं हो पा रहे थे।

‘राधा चिकित्सा सदन’ तो शोक से बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहा था। तब धनुवा और रधिया ने अपने बेटे को ठाकुर साहब की दुहायी देते हुए उनके कर्म, त्याग, बलिदान और समर्पण की बात याद दिलाते हुए ठाकुर साहब की इच्छाओें को पूरा करने की प्रेरणा दी और काम करने को कहा। उसके परम मित्र किसना और सुख दुख के साथी नन्दू ने भी काफी समझाया कि ‘बबुआ, ठाकुर साहब त हमहने के तोहरे रुप में ही सदा बनल रहिहै। तोहरौ काम त ठाकुर साहब के खातिर हौ। आपन काम से ओहके पूरा करिके तू हू ठाकुर साहब के सच्ची श्रृद्धांजलि भेंट करिब। इहै तोहार सेवा ठाकुर साहब कै सेवा कहायी। पछतावा जिन कर और मन लगाइके आपन अस्पताल चलावा।’

चारों ओर से उसके कानों में पड़ती आवाजों से उसको ऐसा लगा कि कहीं दूर से ठाकुर साहब भी यही कह रहे हो कि ‘हां, रमुवा हमरौ त इहै इच्छा रही।’ जीवन की प्रेरणा देती ठाकुर साहब की दूर से आती आवाज ने रामकुमार को फिर से झकझोरा। फिर करवट लेते हुए जीवन को राधा चिकित्सा सदन की ओर लेकर डा. रामकुमार चल देता है।

(समाप्त)

One thought on “लघु उपन्यास : करवट (आठवीं और अंतिम क़िस्त)

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत प्रेरक उपन्यास, मनोज जी. लेकिन इसका अंत दुखद रहा. यदि डॉ राम कुमार कि चिकित्सा से ठाकुर साहब को ठीक होते दिखाया जाता और डॉ राम कुमार को अधिक उन्नति करते दिखाया जाता, तो शायद उपन्यास कहीं अधिक प्रभावी होता.

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