कविता

मैं जी रहा हूँ तुम्हारा विश्वास

उसनें ,

बालों को सुखाकर

मांग में उड़ेल लिया होगा

ढेर सारा सिन्दूर ……..

पहन लीं होंगीं खूब सारी चूड़ियाँ

लपेट ली होगी वही साड़ी जो मुझे है पसंद

निहारती रही होंगी दर्पण के सामने अपना रूप

बहुत देर तक ……..

सोचती रही होगी कि क्या है ऐसा उसमे …

जो कर देता है मुझे पागल ……..

निहारा होगा ख़ुद को ऊपर से नीचे तक

कभी ख़ुद की आँखों से

कभी मैं बनकर ………………

महसूस करती रही होगी चूड़ियों की छुअन……

जो एहसास दिलाती होगी मेरे स्पर्श का

सुनतीं रही होगी चूड़ियों की खनक

मिलाती रही होगी उनसे मेरी आवाज …

फिर ख़ुद ही तोड़कर एक चूड़ी ….

चुभा लिया होगा अपने हाँथ में …….

महसूस करने के लिए प्रेम की चुभन

सहने के लिए प्रेम की पीड़ा

दर्द से निकल पड़े होंगे आँसू ………

पर वो रोई नहीं होगी …..मुस्करा उठी होगी …

याद कर के मेरी कसम कि कभी नहीं रोएगी वो ……….

छोटी-छोटी आँखों में आये बड़े-बड़े आंसुओं को

गालों पर आने से पहले ही रोक लिया होगा उसने ..

और ना जाने क्या याद कर……

आ गयी होगी उसकी आँखों में चमक…

शायद फिर से सोचकर मुझे

फिर सोचकर प्रेम ……………………

हाँ , वो जी रही होगी प्रेम …

वो जी रही होगी प्रेम रुपी जीवन

और मैं………………. ?

मैं जी रहा हूँ …उसे

मैं जी रहा हूँ …उसका विश्वास

कि कभी नहीं मानूंगा हार …निरंतर करूँगा प्रयास

हाँ ……….मैं जी रहा हूँ तुम्हारा विश्वास ………..

अभिवृत | कर्णावती | गुजरात

4 thoughts on “मैं जी रहा हूँ तुम्हारा विश्वास

  • विजय कुमार सिंघल

    एक और अच्छी कविता, अभिवृत जी.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी कविता भाई साहिब .

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