कविता

मुक्तक

कैसे थके नही धोखा देते
कितने थे लेखा-जोखा देते
क्यूँ शर्म-हया धो के पी गए
नासमझ जमीर में मोखा देते

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आलता लगाती सांझ तरुणी निकली
झिर्री से झाँकती तारों की टोली निकली
सूर्य सूर्यमुखी अपनी दिशा बदलते रहे
रात रानी नशीली खिलखिलाती निकली

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

5 thoughts on “मुक्तक

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      बहुत बहुत धन्यवाद आपका

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छा लगा पड़ कर .

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      आभारी हूँ …. शुभ संध्या

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