कविता

पीपल वाली छाँव

 

बिछड़ गये है सारे अपने
संग
साथ है नहीं यहाँ,
ढूँढ रहा मन पीपल छैंयाँ
ठंडी
होती छाँव जहाँ
.

छोड़ गाँव को, शहर गया
अपनी
ही मनमानी से
,

चकाचौंध में डूब गया था
छला
गया
, नादानी से
मृगतृष्णा
की अंधी गलियाँ
कपट
द्वेष का भाव यहाँ

दर्प दिखाती, तेज धूप में
झुलस
गये है पाँव यहाँ
.

सुबहसाँझ, एकाकी जीवन
पास
नहीं है
, हमजोली
छूट
गए चौपालों के दिन
अपनों
की मीठी बोली

भीड़ भरे, इस कठिन शहर में
खुली
हवा की बाँह कहाँ
ढूंढ़
रहा मन फिर भी शीतल
पीपल
वाली छाँव यहाँ
.

शशि पुरवार

One thought on “पीपल वाली छाँव

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुंदर कविता

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