ग़ज़ल
रात के पर्दे के पीछे दिन छुपा रखा है तूने
बात के लहज़े के पीछे दिल छुपा रखा है तूने
आँख हैं बोली नहीं हैं राज आज खोले हैं तूने
साख से पत्ता गिरा है ,आँधियाँ झेली हैं तूने
इन दिनों टूटा बहुत है यार को तोडा है तूने
जुस्तजू किस बात की प्यार को छोड़ा है तूने
अश्क़ जो छूटे नहीं हैं दर्द जो बो दिए हैं तूने
राख में ढूंढा है मोती लाख को छोड़ा है तूने
खुश रहे दुआ है मेरी प्रतीक को छुआ है तूने
साथ जीना साथ मरना कभी ये सुना है तूने
डॉ गिरीश चंद्र पाण्डेय【प्रतीक】
बढ़िया ग़ज़ल !
भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई