उपन्यास अंश

यशोदानंदन-५७

श्रीकृष्ण का लिखित संदेश उद्धव जी लेकर आये थे। उसे पाने के लिए सभी गोपियां अत्यन्त उद्विग्न थीं। किसी एक को लिखित संदेश देने पर छीनाझपटी की प्रबल संभावना देख उद्धव जी ने गोपियों के समक्ष संदेश पढ़ना ही उचित समझा। उन्हें आश्वस्त किया कि वे भगवान के शब्दों का ही उच्चारण करेंगे। उन्होंने संदेश का वाचन आरंभ किया –

“प्रिय गोपियो! मेरी प्रिय सखियो! कपया समझ लो कि किसी भी काल, स्थान और स्थिति में हमलोगों के मध्य वियोग असंभव है, क्योंकि मैं सर्वव्यापी हूँ। यह पृथ्वी, यह आकाश, जल, वायु, अन्तरिक्ष अर्थात्‌ संपूर्ण ब्रह्माण्ड का कोई भी घटक मुझसे विलग नहीं है। संपूर्ण सृष्टि मुझपर आश्रित है। समय का ऐसा कोई भी अंश नहीं है जिसमें मैं नहीं था। मैं इस सृष्टि के पहले भी था, अब भी हूँ और जब यह सॄष्टि समाप्त होगी, तब भी मैं रहूंगा। तुम सब जब धयानस्थ होकर मुझे देखने का प्रयास करोगी, तो अपने समीप ही पाओगी – ठीक उसी तरह जैसे मधुर चांदनी में अपूर्व रासलीला की रात्रि में तुमने मुझे अपने सर्वाधिक निकट पाया था। तुम सबने मेरे सान्निध्य में दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लिया है। तुम्हें अलग से अब उसकी आवश्यकता नहीं है। तुम सबको जीवन के प्रारंभ से ही मुझसे प्रेम करने का अभ्यास है। परम सत्य का ज्ञान विशेष रूप से भौतिक अस्तित्व से मुक्ति पाने की इच्छा रखनेवालों के लिए है। किन्तु जिसने श्रीकृष्ण-प्रेम प्राप्त कर लिया है, वह पहले से ही मुक्ति के स्तर पर पहुंच चुका है। प्रिय गोपियो! अपने प्रति तुम्हारे सर्वोत्कृष्ट प्रेम की अभिवृद्धि के लिए मैंने सोद्देश्य स्वयं को तुमसे दूर कर लिया है ताकि तुमलोग सतत मेरे ध्यान में मगन रह सको।”

श्रीकृष्ण का संदेश सुन गोपियों के मुखमंडल पर हर्ष की रेखायें उभरीं, परन्तु शीघ्र ही विषाद के सागर में विलीन हो गईं। श्रीकृष्ण के सर्वव्यापी और निराकार होने की बात उनकी बुद्धि में समा नहीं पा रही थी। उन्होंने अत्यन्त व्यथित मन से अपनी भावनायें प्रकट कीं –

“उद्धव जी! आप कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण सर्वव्यापी और निराकार हैं। हम इसे कैसे स्वीकार कर लें? वे कह रहे हैं कि वे सृष्टि के पूर्व भी थे। हमलोग इसे कैसे मान लें? हमलोगों ने स्वयं इन्हीं आँखों से उन्हें मातु यशोदा के प्रसव गृह में देखा है। उन्हें माखन चुराते हुए देखा है, गौवें चराते हुए देखा है, यमुना की बालुका-राशि पर पर सखियों के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा है। आप वेद-पुराणों के उद्धरण से हमें भरमा सकते हैं, सत्य को नहीं छिपा सकते। हमने इसी स्थान पर श्रीकृष्ण को सदेह देखा है। आप कह रहे हैं कि वे निराकार ब्रह्म हैं। हम कुमुदिनी पुष्पों और चांदनी से युक्त उस रात्रि को कैसे भूल सकते हैं जब उनकी सदेह उपस्थिति से वृन्दावन नन्दन-कानन बन गया था? श्रीकृष्ण हमारे साथ नृत्य कर रहे थे और वातावरण घुंघरुओं की झंकार से झंकृत हो रहा था। हमने अत्यन्त सुखद वार्तालाप किया था। स्वयं को निराकार और सर्वव्यापी बतानेवाले उस छलिया से पूछियेगा कि उन्हें उस रात्रि का स्मरण है या नहीं? उन्होंने हमारा स्पर्श किया था, गले से लगाया था और करयुग्मों को पकड़कर सारी रात नृत्य किया था। उनके बहलाने से क्या हम बहल जायेंगी? उनके निराकार कहने से हम उन्हें निराकार मान लेंगी? विश्वास न हो, तो सामने कल-लल. छल-छल बहती हुई कालिन्दी से पूछ लीजिए, कदंब के झुके हुए वृक्षों से पूछ लीजिए, गोवर्धन पर्वत से पूछिए, उनके सखाओं से पूछिए, मातु यशोदा से पूछिए, नन्द बाबा से पूछिए, हर द्वार पर बंधी गायों से पूछिए और जिनके साथ दिन भर खेलते थे, उन बछड़ों से पूछिए। हम कैसे मान लें कि वे सर्वव्यापी हैं? अगर हैं, तो यहां प्रकट क्यों नहीं होते, दिखाई क्यों नहीं पड़ रहे हैं? मथुरा में जाने के पूर्व वे सिर्फ वृन्दावन में रहे। वे सार्वजनिक नहीं हैं। वे कल भी हमारे थे, अब भी हमारे  हैं और कल भी हमारे ही रहेंगे। हम आपके दर्शन को स्वीकार नहीं कर सकतीं। जिस तरह यह सत्य है कि सूर्य प्रतिदिन पूरब में उगता है, उसी तरह यह भी सत्य है कि श्रीकृष्ण ने वृन्दावन में जन्म लिया, यहीं पले-बढ़े और यहीं से मथुरा गए। श्रीकृष्ण की चाल, उनकी मुस्कान और उनके विनोदी शब्द आदि उस सुन्दर श्यामसुन्दर के विविध आकर्षक लक्षणों का हम निरन्तर स्मरण करती रहती हैं। श्रीकृष्ण के व्यवहार ने हमें पूरी तरह हर लिया है। उन्हें विस्मृत करना इस जन्म में संभव नहीं है। हे वृन्दावन के स्वामी! हे दुःखी भक्तों के मुक्तिदाता! हम इस दुःख के सागर में गिरकर डूब गई हैं। अतः कृपा करके पुनः वृन्दावन लौट आओ। हमें इस दयनीय स्थिति से मुक्ति दिलाओ।”

उद्धव जी ने गोपियों को सांत्वना देने और उनकी विरह-व्यथा को कम करने के अपनी ओर से अथक प्रयास किए, लेकिन श्रीकृष्ण के प्रेम में बावली गोपियों को साकार कृष्ण को पुनः पाने की लालसा में रंच मात्र भी कमी लाने में सफल नहीं हुए। उनकी सारी विद्वता और पांडित्य गोपियों के समक्ष धरे के धरे रह गए। उद्धव जी ने एक गोपी को सारी गोपियों से अलग एक स्थान पर चुपचाप खड़े देखा। उसकी आँखों से न आंसू बह रहे थे और न मुखमंडल पर हर्ष या विषाद के लक्षण थे। वह बड़े ध्यान से उद्धव जी की बातें और गोपियों के प्रतिवाद सुनती जा रही थी। अपनी ओर से पूरे वार्तालाप में उसने एक शब्द की भी वृद्धि नहीं की। उद्धव जी को समझने में तनिक भी विलंब नहीं हुआ कि वह श्रीकृष्ण की सर्वप्रिय प्रेयसी राधा थी। गोपियों के प्रश्न और प्रतिप्रश्नों ने उद्धव जी को निरुत्तर कर दिया था। वे गोपियों से आँख मिलाकर उनके प्रश्नों के उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। शायद राधा कोई समाधान दे सके! वे धीरे-धीरे चलकर राधा के पास पहुंचे। राधा को उनके आने का पता भी नहीं चला। वह श्रीकृष्ण की स्मृति में खड़े-खड़े ध्यान की अवस्था में थी।

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-५७

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक ! गोपियों के प्रेमजी पराकाष्ठा में उद्धव जी का ज्ञान तुच्छ हो गया।

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