कविता

मुस्कानें

मुस्कानें

कुछ मुस्कानें सोई पड़ी हैं
मां,दादी की लोरी में
कुछ रख दी हैं बाऊजी ने
बंद करके तिज़ोरी में
कुछ झांक रही हैं
बचपन की खिड़की से
निकालो उनको फिर से चलो…
अपने पास बिठाओ
कुछ ठहाके,कहकहे सो गये
दोस्तों की महफ़िलों में
यादों के गलियारों से
जगा लो उनको फिर से चलो…
कुछ छुपी सी मुस्कानें
दबी पड़ी हैं किताबों में
ख़त और फूलों के साथ
ढूढ़ लाओ उनको भी
महका लो ज़िन्दगी फिर से चलो…
कुछ जख़्म जाग रहे हैं
एक अरसे से दिल में
कुछ लोरियाँ सुनाके सुलादो इनको…
कुछ ग़म सो गए हैं
धड़कनों के घर में
ठहाकों कहकहों से जगा दो इनको….
कुछ ख़्वाब जलने की कालिख़,
धुँआ सा भर गया ज़ेहन में
छुए कोई सुखा फूल इन्हें
शायद फिर से ज़िन्दा हों ये…

2 thoughts on “मुस्कानें

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया कविता ! वाह वाह !!

    • आभार

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