कविता

सच कहूंगी

अपनी कलम की कसम दो बात कहुंगी
जो भी कहूंगी सच कहूंगी।

कवि आजाद परिंदा है इसे डरने की न आदत
लेखनी इसकी पूँजी है सच्चाई इसकी ताकत
ये वो कानून नहीं जो सच पे बाँध ले पट्टी
यहाँ सच का पलड़ा झूकेगा चाहे जिसे हो आपत्ति
ये जज का कलम नहीं जो सबूत देखता है
ये तो मन की अदालत से न्याय पूछता है
इस लेखनी को कैसे शर्मशार करुंगी
जो भी कहूंगी सच कहूगी

सुनकर ये कड़वा सच बंद कर लेना कान
चोर बेईमान यहाँ बने हैं महान
सत्यवादी साधु को मूर्ख माना जाता है
सतरंज चाल चलनेवाला तेज कहलाता है
हंस हार जाता है कौओं की दरबार में
मंजिल खो जाती उसकी सच्चाई की राह में
इस हार को मैं किस्मत का ही नाम दूंगी
जो भी कहुंगी सच कहूंगी

अब धर्म पर कोई आस्था नहीं करते हैं अभिमान
दूसरों को निचा दिखाने को करते हैं संग्राम
विकास की नहीं जाती धर्म के सिक्के चलते हैं
जो नेता ये जानते हैं वही असेंबली जाते हैं
यहाँ सबको लगी है घूस रिश्वत का चस्का
ईमानदार है वही जिसे नहीं मिला मौका
ये दृश्य चुपचाप न मैं देख सकूंगी
जो भी कहूंगी सच कहूंगी

देश के सभ्य संस्कृति का लोग करते हैं अपमान
विदेशी कुरिति का बनें हैं गुलाम
विदेश में कुत्तों का भी पीठ मलते हैं
यहाँ अपने बाप पर भी रोब झाड़ते हैं
विदेशी बाला के थप्पड़ भी नशीब से मिलता है
यहाँ पत्नी के प्यार पर भी गुस्सा आता है
ये अपमान कैसे मैं दिल में सहूंगी
जो भी कहूंगी सच कहूंगी

सरस्वती नहीं यहाँ तो लक्ष्मी पूजी जाती है
दिल की सुंदरता नहीं सुंदर जिस्म देखी जाती है
इज्जत ईमान का सौदा जो करते हैं
वही लोग आज यहाँ सर उठाके जिते हैं
चरित्र इंसानियत काभाव जो देते हैं
इसके अलावा उनके पास कुछ और नहीं होते हैं
ऐसे लोगों को मैं तो सलाम करुंगी
जो भी कहूंगी सच कहूंगी

-दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

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