सामाजिक

महिलाओं को कागजों पर मिले अधिकार, हकीकत में नहीं

भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष की बराबर की भागेदारी है, अपने अपने दायरे हैं, अपने अपने क्षेत्र हैं. पुरातन काल में जब राजाओं का राज होता था तब आम स्त्रियों को घर से बाहर जाने की इज़ाज़त नहीं थी. वह घरेलू क्षेत्र में ही अपनी भागीदारी निभाती थी.

समय परिवर्तन हुआ. अब स्त्रियां घर से बाहर पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर उसकी सहयोगी बन गई हैं. दोनों क्षेत्रों में जूझती स्त्री को बार-बार उसके कर्तव्य तो याद दिलाए जाते हैं लेकिन क्या एक स्त्री को उसके अधिकार मालूम हैं?

इसका मुख्य कारण है, स्त्री में शिक्षा का अभाव और जागरूकता की कमी. कई महिलाएं तो शिक्षित होने के बावजूद अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ रहती हैं. समाज में कई वर्ग तो महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा देने के खिलाफ भी खड़े हो जाते हैं.

लेकिन, बराबर के अधिकारों की भागीदारी रखने वाली स्त्री को हमेशा दोयम दर्ज़े की जिम्मेदार स्त्री खुद भी है.

एक स्त्री को मालूम होना चाहिए कि –

  1. उसे शिक्षा का अधिकार है. गांवों में आज भी लड़कियों को शिक्षित करना जरुरी नहीं समझा जाता, या उनको ऐसी शिक्षा लेने को मजबूर किया जाता हैं जिसका सीधा सम्बन्ध रोजगार से नहीं होता और व्यावाहारिक जिन्दगी में जिसकी महत्ता नहीं होती. पुत्रों की शिक्षा पर लाखों  खर्च करने वाले परिवार में स्त्री की शिक्षा से अधिक विवाह के लिए धन की जरुरत समझी जाती है, जबकि एक स्त्री के पढ़ने से तीन परिवार में संस्कार और वातावरण बदलता है.
  2. श्रम शक्ति का अधिकार.पुरुषों से अधिक स्त्रियां काम काजी होती हैं, बड़े संस्थानों से लेकर खेतों-सड़कों पर मज़दूरी करती या फिर घरेलू काम काज के लिए सहायक रखी स्त्रियां.बड़े संस्थानों को अगर छोड़ दिया जाए तो बाकि स्तरों में स्त्रियों को उनके श्रम का पूरा भुगतान नहीं मिलता. पुरुषों से कम ही मिलता है. घरेलु महिला उम्र भर बेरोजगार मानी जाती है, उसके श्रम की कोई महत्ता नही होती. परन्तु उसके बीमार होने या अन्य किसी कारण से जब उसके बदले में काम कराया जाता हैं तो उसका भुगतान किया जाता हैं. कई संस्थानों में स्त्रियों के स्थान पर पुरुषों को वरीयता मिलती है.
  3. भूमि और संपत्ति अधिकार. भारतीय परिवारों में आज भी बेटी को संपत्ति में अधिकार नहीं दिया गया.बेटे चाहे कैसे हों और बेटियां दिलोजान से माता पिता की सेवा करती रहें, लेकिन अंत में संपत्ति बेटे को ही दी जाती है. बेटियों के विवाह पर हुए खर्च को उनका संपत्ति का हिस्सा करार देकर बेदखल कर दिया जाता है. लड़कियों की दशा शोचनीय तब हो जाती हा जब उनको पति की तरफ से अपना क़ानूनी हिस्सा लेन को मजबूर किया जाता है और मायके से बेदखल. बेचारी बेटिया दोनों तरफ से मारी जाती हैं.
  4. अच्छे स्वास्थ्य का अधिकार. पूरे घर का स्वास्थ्य सही रहे इसकी चिंता करने वाली कभी अपने स्वास्थ्य का ख्याल नही रख पाती. ना कोई हॉस्पिटल ना कोई संतुलित भोजन उसको प्राप्त होता है. अपनी शारीरिक सरंचना की वज़ह से मातृत्व के समय उसे विशेष देखभाल की जरुरत होती है जो उसे बहुत कम प्राप्त होती है. महिला हस्पतालों की संख्या न्यून होने की वज़ह से और पारिवारिक संवेदनहीनता की वज़ह से, एक आम स्त्री अक्सर अस्वस्थ रहती हैं.
  5. मन चाहा करियर चुनने का अधिकार. लड़की क्या पढ़ेगी, क्या करेगी इसका फैसला माता-पिता करते हैं.शहरों में फिर भी कन्याओं को अपना करियर चुन लेने की स्वतंत्रता है लेकिन गांव-कस्बों में स्थिति बहुत दयनीय है.
  6. अभिव्यक्ति का अधिकार. सबसेख़राब स्तिथि यहाँ है. लड़कियों और महिलाओं को अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का अधिकार नहीं है. बचपन से उन्हें चुप रहने की शिक्षा दी जाती है. सही या गलत का भेद करके अभिव्यक्ति की शिक्षा नहीं दी जाती.
  7. हिंसा के विरोध का अधिकार. अगर वह पुरुष सत्ता के पक्ष में झुकी रहती है तो सब कुछ ठीक रहता है. लेकिन जहाँ भी वह पुरुष सत्ता के किसी फैसले पर सवाल खड़ा करती है तो हिंसा की शिकार होती है. गांव कस्बों में घरेलु हिंसा को सहज रूप से स्वीकार कर लिया जाता है. शहर में भी बंद दीवारों में इसकी शिकार महिलाएं सिसकती रहती हैं और नियति मानकार चुपचाप सहन करती हैं.
  8. विवाह का अधिकार. आज भी गोत्र-जाति-धर्म को हथियार बनाकर स्त्री को मनचाहा जीवन साथी चुन लेने का अधिकार नही दिया जाता हैं.अगर स्त्री कभी अपने मनचाहे लड़के से विवाह कर भी लेती है तो ऑनर किलिंग के मामले सामने आते हैं. शहरों में आज लड़कियों को मनचाहा जीवन साथी चुन लेने का अधिकार दिया जाता है परन्तु मूलत: आंकड़े इसके विपक्ष में ही रहते हैं.
  9. स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति सचेत नहीं रहतीं. मौलिकअधिकार के साथ साथ नैतिक अधिकारों का भी परित्याग कर देती हैं.सबके लिए उम्र भर खटने वाली स्त्री चाहे कामकाजी हो या घरेलु, महिला हर जगह कमजोर ही मानी जाती है. अपवाद हर जगह होते हैं और अपवादों में से ही कहीं अगर एक स्त्री को सत्ता मिल जाती है तो दूसरी स्त्री का शोषण करने से भी वह नही चूकती.  घर परिवार में घरेलु हिंसा के अधिकतर मामलो में कोई दूसरी महिला ही कारण होती है चाहे वह बहन के रूप में हो, मां के रूप में हो या विवाह उपरांत किसी दूसरी स्त्री के रूप में.
  10. स्त्री को अगरअपने लिए एक उन्नत शांतिपूर्ण जीवन चाहिए तो सबसे पहले उसे स्व से उठकर ‘सब मेरे जैसे’ की भावना से काम करना होगा. मेरी बेटी भी, मेरी बहु भी, मेरी मातहत भी, मेरी बॉस भी, सब एक सामान रहे व्यवहार मेंमन की मंशा सदैव आंतरिक संतुष्टि एवं वासुदेव कुटुम्भकम वाली रहनी चाहिए. स्त्री होना गुनाह नही है, एक वरदान है

नीलिमा शर्मा निविया

नीलिमा शर्मा (निविया)

नाम _नीलिमा शर्मा ( निविया ) जन्म - २ ६ सितम्बर शिक्षा _परास्नातक अर्थशास्त्र बी एड - देहरादून /दिल्ली निवास ,सी -2 जनकपुरी - , नयी दिल्ली 110058 प्रकाशित साँझा काव्य संग्रह - एक साँस मेरी , कस्तूरी , पग्दंदियाँ , शब्दों की चहल कदमी गुलमोहर , शुभमस्तु , धरती अपनी अपनी , आसमा अपना अपना , सपने अपने अपने , तुहिन , माँ की पुकार, कई वेब / प्रिंट पत्र पत्रिकाओ में कविताये / कहानिया प्रकाशित, 'मुट्ठी भर अक्षर' का सह संपादन

One thought on “महिलाओं को कागजों पर मिले अधिकार, हकीकत में नहीं

  • विजय कुमार सिंघल

    जागरूकता बढ़ाने वाला अच्छा लेख !

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