मवाद
धर्म जब तक
मंदिर की घंटियों में
मस्जिद की अजानों में
गुरूद्वारे के शब्द-कीर्तनों में
गूंजता रहे तो अच्छा है
मगर जब वो
उन्माद-जनून बनकर
सड़कों पर उतर आता है
इंसानों का रक्त पीने लगता है
तो यह एक गंभीर समस्या है?
एक कोढ़ की भांति हर व्यवस्था और समाज को
निगल लिया है धार्मिक कट्टरता के अजगर ने।
अब कुछ-कुछ दुर्गन्ध-सी उठने लगी है
दंगों की शिकार क्षत-विक्षप्त लाशों की तरह
सभी धर्म ग्रंथों के पन्नों से!
क्या यही सब वर्णित है
सदियों पुराने इन रीतिरिवाज़ों में?
रुढियो-किद्वान्तियों की पंखहीन परवाजों में?
ऋषि-मुनियों, पग्म्बरों, साधू-संतों द्वारा
उपलब्ध कराए इन धार्मिक खिलौनों को
टूटने से बचने की फ़िराक़ में
ताउम्र पंडित-मौलवियों की डुगडुगी पे
नाचते रहेंगे हम बन्दर-भालुओं से …!
क्या कोई ऐसा नहीं जो एक थप्पड़ मारकर
बंद करा दे इन रात-दिन
लाउडस्पीकर पर चींखते धर्म के
ठेकेदारों के शोर को?
जिन्हें सुनकर पक चुके हैं कान
और मवाद आने लगा है इक्कीसवी सदी में!
अच्छी रचना है।
सार्थक लेखन
सच्ची बात