धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आपका सच्चा मित्र कौन है?

किसी शहर में एक आदमी रहता था। उसके तीन मित्र थे। पहले मित्र के लिए वह अपनी जान भी देने के लिए तैयार था। दूसरे मित्र के विषय में उसका मानना था की यह कभी न कभी मौके पर काम आ ही जायेगा।तीसरे मित्र की और वह कभी कभी ही ध्यान देता था। एक बार उस पर मुसीबत आ पड़ी, उस पर गंभीर मुकदमा दायर हो गया जिससे बचने की उसकी कोई आशा न थी। वह भागा भागा अपने सबसे प्रिय मित्र के समीप गया। उसने अपने मित्र को अपनी सारी राम-कहानी कह सुनाई। सबसे प्रिय मित्र ने कहा- मित्र, आपकी मेरी अटूट मित्रता तो है। परन्तु यह मामला आपके घर का निजी मामला है। इसलिए मैं इसमें आपका कोई साथ नहीं दे सकता।

निराश होकर वह आदमी दूसरे मित्र के समीप गया और उसे भी अपनी व्यथा कह सुनाई। दूसरा मित्र बोला। मैं आपका साथ तो दूंगा मगर अदालत के बाहर तक। भीतर जाने के पश्चात तो मुकदमा आपको अकेले ही लड़ना पड़ेगा। दोनों की बात से निराश होकर वह आदमी अपने तीसरे मित्र के समीप गया.जिस पर वह कभी कभी ही ध्यान देता था। उसे भी अपनी व्यथा कह सुनाई। तीसरे मित्र तत्काल उसके साथ हो गया। वह अदालत भी गया और उसका मुकदमा भी लड़ा।

मित्रों जानते है प्रत्येक आदमी के ये तीन मित्र कौन हैं? पहला मित्र है- धन-संपत्ति। जो आदमी को सबसे अधिक प्रिय है। मगर जब मृत्यु अर्थात जीवन के समाप्त होने का समय आता है तब चाहे कितना भी धन क्यों न हो किसी काम का नहीं रहता। दूसरा मित्र है- सगे सम्बन्धी, मित्र आदि। वे मृत्यु के पश्चात अदालत (शमशान) के दरवाजे तक ले जाकर छोड़ देते आते हैं। मगर अंदर साथ देने कोई नहीं आता। तीसरा मित्र है- सत्कर्म अर्थात अपने निस्वार्थ भाव से किये गए कर्म। अकेले हमारे कर्म हमारे साथ जाते है। वही हमारा मुकदमा अदालत में लड़ते है। जिसके आधार पर हमें अगला जन्म मिलता हैं।

ऋग्वेद 1/181/3 में इसी भाव को अत्यंत सुन्दर शब्दों में बताया गया है। वेद कहते है यह शरीर रूपी रथ हमें शोभन आचरण के लिए प्राप्त हो। हम अपने शरीर से किसी भी प्रकार का अशोभनीय कार्य न करे। यह शरीर सदा गतिवाला अर्थात क्रियाशील बना रहे। इस शरीर रूपी रथ का उद्देश्य ईश्वर के साथ संगतिकरण करना है।

मनुष्य अपने जीवन में धन को सबसे अधिक महत्व देता है। उसके पश्चात परिवार, सगे-सम्बन्धी को महत्व देता हैं। मगर मनुष्य अपने कर्मों और जीवन के लक्ष्य पर सबसे कम ध्यान देता है। हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि इस शरीर का उद्देश्य धन का संग्रह करना नहीं हैं। न ही सदा परिवार की सेवा सुश्रुता हैं। सांसारिक साधनों का सही प्रकार से hप्रयोग करते हुए सत्कर्म करना। मोक्ष रूपी आनंद और सुख को प्राप्त करना ही इस जीवन कालक्ष्य हैं। सच्चे मित्र का संग करने वाला ही इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

डॉ विवेक आर्य