सामाजिक

शिक्षा-माध्यम के बदलाव का प्रबंधन

(एक)
क्रान्तिकारी प्रगति का मूल:
शिक्षा के माध्यम का बदलाव, भारत की क्रान्तिकारी प्रगति का सशक्त मौलिक कारण मानता हूँ। यह ऐसा धुरा है, जिस पर सारे राष्ट्र की प्रगति का चक्रीय (Merry Go Round) हिण्डोला आधार रखता है, और कुशलता पूर्वक चतुराई से, प्रबंधन करनेपर, प्रचण्ड गति धारण कर सकता है; सपने में भी जो किसी ने, सोची हो, इतनी उन्नति भारत कर सकता है; देश छल्लांग लगाकर आगे बढ सकता है।
प्रादेशिक भाषा माध्यम से या हिन्दी माध्यम की शिक्षा से, प्रत्येक छात्र के से वर्ष बचते है। अरबजों का खर्च बचता है। इन बचे वर्षों में छात्र अपनी रुचि के विषय में विशेषज्ञ बन सकता है। उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकता है। चाहे तो परदेशी भाषा (चीनी, रूसी, जापानी, अंग्रेज़ी, फ्रान्सीसी इत्यादि) पढ सकता है। कोई हानि नहीं।school

(दो) सुझाव: समग्र भारत की अविचल श्रद्धा से युक्त, सामने जिन्हें केवल भारत ही दिखता हो, दृष्टि में प्रादेशिकता का अंश भी ना हो, ऐसे विद्वानों का आयोग बने। ऐसा आयोग ही, भाषा नीति द्वारा भारत की क्रान्तिकारी प्रगति, आरक्षित कर सकता है। सारे स्वार्थ प्रेरित, और प्रादेशिक हितों के लिए राजनीति खेलनेवाले, तत्त्वों को ऐसे आयोग से दूर रखना चाहिए। भाषा का गोवर्धन पर्बत उठाने में उंगली ही भले लगे; पर पर्बत पर चढकर भार बढानेवालों से सावधान! ऐसे तत्त्वों को दूर रखा जाए। उन्नति की बालटी में अपना पैर गाडकर उसे उठाने का ढोंग करनेवालों को भी दूर रखा जाए। (तीन) विषय अति गंभीर: विषय अति गंभीर है। इसके कारण प्रभावित होनेवाले सारे क्षेत्रों के, उनके अंगों और उपांगों का भी विचार कर बदलाव का प्रबंधन आवश्यक है। सही और *सूक्ष्म नियोजन और प्रबंधन* भारत को क्रान्तिकारी प्रगति दिला सकता है। और हडबडी में कुनियोजित बदलाव हमें विफल भी कर सकता है।

(चार) ढिलाई बरतने पर दारूण असफलता: ढिलाई बरतने पर दारूण असफलता और निराशा भी हाथ लग सकती है। दूरदृष्टि सहित सोच विचार कर, ऐसी असफलता की सभावना भी निर्मूल करनी होगी।असफल होने पर फिरसे अंग्रेज़ी के पुरस्कर्ता हम पर चढ बैठेंगे। इस लिए भारत को परिश्रम के लिए भी तैयार रहना पडेगा।

(पाँच) इज़राएल और जापान का इतिहास: संक्रमण काल में कठोर परिश्रम भी करना ही होता है। इज़राएल और जापान का इतिहास हमें यही सीख देता है। कुछ जापान और इज़राएल के, भारतीय विशेषज्ञों को उनके शिक्षा माध्यम के विषय के अनुभवों को जान कर विवरण देना होगा, सीख लेनी होगी। उनकी गलतियाँ जानकर हमारा विकासक्रम सुनिश्चित और त्रुटि-रहित करना होगा।

(छः) महत्त्व के बिन्दू: इस बदलाव के महत्त्व के बिन्दू निम्न है। (१) हडबडी में वादा पूरा करने से बचा जाए। (२) बदलाव से अपेक्षित और प्रभावित क्षेत्रों का पूरा आकलन भी आवश्यक है। (३) प्रबंधन की (Critical Path Method ) अर्थात निर्णायक पथ पद्धति का अवलम्बन किया जाए। (४) सारे प्रभावित और आवश्यक क्षेत्रों का अध्ययन हो, जिससे ऐसा बदलाव सफलता से किया जाए, और, विशेष हानियों से बचा जाए। यदि कुछ हानियाँ हो भी, तो उनका प्रभाव कम से कम होगा। (सात) निर्णायक पथ पद्धति: (Critical Path Method): निर्णायक पथ पद्धति का अवलम्बन करने से सारे समस्यात्मक पहलु उजागर हो जाते हैं। साथ साथ सारी क्रियाओं का क्रम और उनकी कालावधि उभर कर सामने आ जाती है। समस्याएं भी पता चल जाती है। लेखक ने Critical Path Method का प्रबंधन पढाया है, और अभियांत्रिकी में योजा भी है।

(आठ) संक्रमण काल में कठोर परिश्रम: शिक्षक प्राध्यापक से लेकर छात्र और अभिभावक तक सभी को इस संक्रमण काल में कठोर परिश्रम करना होगा। कम से कम प्राथमिक चरण में किसी समूह विशेष को, आरक्षित ना रखा जाए। परीक्षा की तैयारी के लिए सहायता की जाए, पर परीक्षा का स्तर सभी के लिए समान रखा जाए। आंशिक आरक्षण समाज के साहस, पराक्रम और पुरूषार्थ की हत्त्या कर देता है। और आरक्षित समाज की, अकर्मण्यता को भी प्रोत्साहित करता है। साथ साथ सभी की, कर्म-निष्ठा को मार देता है।इस दृष्टि से, आरक्षण देश की अधोगति को ही आरक्षित करता है। उसी प्रकार जिस समाज को आरक्षित किया जाता है, उसीकी अनचाही अवनति होती है। आरक्षण हो, तो भी स्थायी नहीं होना चाहिए।

(नौ) शिक्षा माध्यम बदलाव के घटक :

घटक हैं। (१) छात्र और उसके अभिभावक माता पिता (२) शिक्षक और प्राध्यापक (३) पाठ्य पुस्तकें (४) शिक्षण संस्थाएँ –शालाएँ (५)विश्वविद्यालय (६) आजीविका या रोजगार देनेवाले व्यवसाय और उद्योग (७) शासन (८) अंग्रेज़ी सहित अन्य परदेशी भाषाएँ। आजीविका या रोजगार देनेवाले व्यवसाय और उद्योगों से सघन परामर्श किया जाए। उनकी बैठकें हो। उनकी आवश्यकताएं जानी जाएँ। कितनी परदेशी भाषा की आवश्यकता उन्हें पडेगी, यह भी जानना चाहिए। (दस ) पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन: पाठ्य पुस्तकों के लिए डॉ. रघुवीर की पारिभाषिक शब्दावलियाँ उपयोग में लायी जा सकती है। और उन शब्दावलियों का प्रयोग भारत की सारी प्रादेशिक भाषाओं में समान रूपसे लागू हो सकता है। पाठ्य पुस्तकों का लेखन, संपादन, मुद्रण इत्यादि भी साथ साथ चलता ही रहेगा।एक बार पुस्तकें बन जाने पर आगे अधिकाधिक सरल होता चला जाएगा। धीरे धीरे पुस्तकों को परिपूर्ण बनते ही जाना है। सुविधा की दृष्टि से पहले हिन्दी और दूसरे चरण में प्रादेशिक भाषाओं में प्रबंधन मुझे उचित लगता है; विशेषतः जब, हिन्दी सिनेमा सारे भारत में देखा जाता है। और पारिभाषिक शब्दावली संस्कृत होने से भारत की सभी प्रादेशिक भाषाएं समान रूप से लाभान्वित होंगी, साथ साथ छात्रों का अन्य प्रदेशो में स्थलान्तर भी न्यूनमात्र कठिनाई से होगा। भारत की उन्नति से कोई समझौता ना किया जाए।

(ग्यारह) मेरी तथ्यात्मक सामग्री: इस आलेख की मेरी सामग्री स्थूल और अनुमान पर आधारित है। इस मर्यादा के कारण यह आलेख एक दिशा निर्देश भी नहीं केवल संकेत दर्शक ही है। ऐसे बदलाव के सभी पहलुओं पर विचार कर उनका परस्पर तालमेल भी रखना होता है। ऐसे बदलाव की समय सारणी या समय तालिका (टाईम टेबल )बनानी होगी; (Critical Path Method) निर्णायक पथ पद्धति के उपयोगसे ऐसे बदलाव सहज और कम से कम कठिनाई से संभव हो जाते हैं।कुछ ऐसे प्रबंधकों को नियुक्त किया जाना चाहिए जो निर्णायक पथ पद्धति के जानकार हो।कुछ पारिभाषिक शब्दावली की जानकारी भी रखता हो। जितना पूर्व नियोजित बदलाव होगा, और सारे स्पर्शित और प्रभावित घटकों का पूर्व विचार किया जाएगा, उतना ही सहज बदलाव होगा। असुविधाएँ कम होंगी। समस्याएं हुई तो भी सीमित होगी।

बदलाव के हर बिन्दूपर सघन गहरा विचार कर, सारे प्रभावित (Affected)क्षेत्रों को विश्वास में ले कर उचित समय सारणी बनानी होगी। हडबडी में नहीं किया जाए।

— डॉ. मधुसूदन

One thought on “शिक्षा-माध्यम के बदलाव का प्रबंधन

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    विचारणीय आलेख

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