ग़ज़ल
जो ख़रीदे इश्क़ मैं बेमोल बिकना चाहती हूँ.
मैं ग़ज़ल तो लिख चुकी अब ‘तुमको’ लिखना चाहती हूँ.
यूँ तो मैं कुछ भी नहीं पर प्यार से श्रृंगार करके,
हर घडी, हर पल, तुम्हें कुछ ख़ास दिखना चाहती हूँ.
तेज़ दरिया की रवानी है यही मेरी कहानी,
फिर भी तेरे सीने पर सर रख के टिकना चाहती हूँ.
सुन जिसे जागें उम्मीदें गम फिसल कर गिर पड़ें सब,
मैं ग़ज़ल का फर्श ऐसा-नर्म चिकना चाहती हूँ.
किस तरह दीवानगी का मैं करूँ इज़हार तुमसे,
कैसे तुमको ये बताऊँ तुमको कितना चाहती हूँ.
— अर्चना पांडा
किस तरह दीवानगी का मैं करूँ इज़हार तुमसे,
कैसे तुमको ये बताऊँ तुमको कितना चाहती हूँ. ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी .