हिंदी, हिंदुस्थान स्वदेशी शिक्षा के महानायक मालवीय जी
आधुनिक भारत में प्रथम शिक्षा नीति के जनक, शिक्षा के विशाल व लोकप्रिय केंद्र काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक सांस्कृृतिक नवजागरण एवं स्वदेशी हिंदी आंदोलनों के प्रवर्तक राष्ट्रभक्त महान समाज सुुधारक भारतीय काया में पुनः नयी चेतना एवं ऊर्जा का संचार करने वाले महामना मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 को हुआ था। मालवीय जी के पिता पण्डित ब्रजनाथ कथा, प्रवचन और पूजाकर्म से ही अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करके मालवीय जी ने संस्कृत व अंग्रेजी पढ़ी। मालवीय जी युवावस्था में अंग्रेजी तथा संस्कृत दोनों ही भाषाओं में धाराप्रवाह बोलते थे। महामना मदन मोहन मालवीय बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी हो गये थे। खेलकूद, व्यायाम, कुश्ती, बांसुरी एवं सितार वादन का शौक था। बाल जीवन में ही एक भाषण-दल बनाया था जो जो चैराहों पर तथा मेंलों सभाओं में विभिन्न विषयों पर भाषण दिया करता था। कवि और साहित्यकार की प्रतिभा भी विद्यमान थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र की कवि मंडली में भी आप शामिल हो गये थे।
स्नातक करने के बाद मालवीय जी ने अध्यापक की नौकरी की तथा बाद में वकालत भी की। उनकी वकालत की विशेषताएं थीं जिसमें गरीबों के केस तथा सार्वजनिक हित के मामलों में कोई फीस न लेना, जिसमें झूठ बोलना पड़े। महामना ने पत्रकारिताके क्षेत्र में भी अपना नाम रोशन किया। जुलाई 1887 से जून 1889 तक हिंदी दैनिक हिन्दोस्थान (कालांकर) के मुख्य संपादक, जुलाई 1889 से 1992 तक अंग्रेजी पत्र ‘इण्डियन यूनियन’ के सह संपादक और 1907 में साप्ताहिक अभ्युदय 1909 में अंग्रेजी दैनिक लीडर 1910 में हिंदी पाक्षिक मर्यादा एवं 1933 में हिंदी साप्ताहिक सनातन धर्म के संस्थापक तथा कुछ वर्षोंं तक इन सभी पत्रों के संपादक रहे। मालवीय जी 1924 से 1940 तक हिंदुस्तान टाइम्स दिल्ली के चेयरमैन रहे। मालवीय जी ने 1908 में अखिल भारतीय संपादक संम्मेलन, प्रयाग के अध्यक्ष पद से समाचार पत्रों की स्वतंत्रता का हनन करने वाले सरकारी प्रेस एक्ट तथा न्यूज पेपर एक्ट की कड़ी आलोचना की थी। सन् 1910 में मालवीय जी ने प्रान्तीय कौंसिल में सरकारी प्रेस विधेयक का कड़ा विरोध किया। जनचेतना एवं जनआंदोलन की लहर जगाने में महामना की पत्रकारिता ने एक बड़ी भूमिका निभायी थी। उनके लिये पत्रकारिता कोई व्यवसाय नहीं अपितु एक धर्म था। वे पत्रकारिता को एक कला मानते थे। समाचारों के संकलन, पत्र के मेकअप, गेटअप, करेक्शन, प्रूफ रीडिंग का काम बड़ी तन्मयता के साथ और गहराई के साथ करते थे।
मालवीय जी हिंदू धर्म व समाज पर जब भी कोई संकट आता तो वे तुरंत सक्रिय हो जाते थे। मालवीय जी हिंदी, हिंदू और हिंदुस्थान के लिए 24 घंटे कार्यरत रहते थे। 10 अक्टूबर 1910 को काशी में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन में उन्होनें अध्यक्षता की। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने हिंदी भाषा भाषी जनता से हिंदी सीखने का आह्वान किया। 19 अप्रैल 1919 को बम्बई में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए मालवीय जी ने देवनागरी लिपि में लिखी गयी हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा की मान्यता प्रदान करने पर जोर दिया। मालवीय जी भारतीय विद्यार्थियों के लिए प्राचीन भारतीय दर्शन, साहित्य, संस्कृति और अन्य विधाओं के साथ- साथ अर्वाचीन नीतिशास्त्र, समाज विज्ञान, मनोविज्ञान, विधि विज्ञान, अर्थशास्त्र और राजनीति का अध्ययन आवश्यक समझते थे। हर हिंदू के प्रति प्रेम होने के कारण उन्होनें हजारों हरिजन बंधुओं को ऊँ नमः शिवाय और गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। हिंदी की सेवा और गोरक्षा के लिए उनके प्राण बसते थे।
उन्होनें लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद के साथ मिलकर अखिल भारतीय हिंदू महासभा की स्थापना की थी। वे 1923, 24 और 36 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे। जबकि 1909, 18, 32, 33 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। वे महान समाजसेवी भी थे। समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए सतत प्रयास किये। महिलाओं में निरक्षता को समाप्त करने के लिए अनेक शिक्षण संस्थाएं खुलवायीं। उन्होनें अपने जीवनकाल में ही व्यायामशाला, गौशाला और मंदिर भी बनवायें।
मालवीय जी ने बहुत से सामाजिक कार्य किये। मालवीय जी ने नवम्बर सन 1889 में भारती भवन नाम से पुस्तकालय स्थापित करवाया। जिसमें हिंदी और संस्कृत पुस्तकों का संग्रह और अध्ययन प्रमुख उददेश्य था। मालवीय जी ने हिंदू विद्यार्थियों के रहने के लिए एक छात्रावास के निमित्त प्रांतों में घूम घूमकर चंदा एकत्र किया। इसी चंदे के माध्यम से छात्रावास का निर्माण हुआ। अर्धकुंभ के दौरान मालवीय जी ने सेवा के कई कार्य किये। वे जीवनभर समाजसेवा में रत रहने लगे। अगस्त 1946 मे जब मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही के नाम पर पूर्वोत्तर भारत में कत्लेआम किया तो मालवीय जी बीमार थे। वहां हिंदू नारियों पर अत्याचारों को सुनकर वे रो पड़े। इसी अवस्था में 12 नवंबर 1946 को उनका देहान्त हुआ। शरीर छोड़ने से पूर्व उन्होनें अंतिम संदेश के रूप में हिंदुओं के नाम बहुत मार्मिक संदेश दिया।
— मृत्युंजय दीक्षित