धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सत्य के आग्रही व यथार्थवादी महर्षि दयानन्द

ओ३म्

महाभारत काल के बाद देश व संसार में वेदों के विद्वान होने के साथ यदि यथार्थवादी महापुरुषों पर दृष्टि डाली जाये तो हमें एक ही नाम दृष्टिगोचर होता है और वह नाम है स्वामी दयानन्द सरस्वती। महर्षि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ विद्वान, वेदों के प्रचारक, सच्चे योगी व समाज-देश सुधारक हुए हैं जिनकी तुलना में महाभारत के पश्चात अन्य दूसरा कोई विद्वान नहीं हुआ। महर्षि दयानन्द में यथार्थवादी महापुरुष होने के साथ अन्य भी अनेक गुण थे। वह आदर्श ब्रह्मचारी, ईश्वर भक्त, सिद्ध योगी, वेदभक्त, देशभक्त, सभी वैदिक ऋषियों के भक्त, समाज सुधारक, जाति रक्षक, देश की स्वतन्त्रता के मन्त्रदाता वा सूत्रधार, वेदों के ऋषियों की परम्परा में एक महान ऋषि, अपूर्व वैदुष्य के धनी, सामाजिक नेता, दूरद्रष्टा, आदर्श उपदेशक, शास्त्रकार और साहित्यकार, निर्भीक, साहसी, स्त्री, शूद्रों वा दलितों के उद्धारक, अनाथों के रक्षक, एक धर्म, एक संस्कृति, एक आचार-विचार, एक सुख-दुःख, संस्कृत व हिन्दी के समर्थक एवं पोषक विद्वान होने सहित धार्मिक  क्रान्ति के अपूर्व योद्धा थे। अपने अध्ययन के आधार पर हमें विश्व इतिहास में उनके समान दूसरा महापुरुष दृष्टिगोचर नहीं होता। उनका यश व कीर्ति इतिहास में अक्षुण है और वह सूर्य और चन्द्र के विद्यमान रहने तक संसार में अमिट रहेगी।

महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व में यथार्थवादी महापुरुष के होने की पुष्टि के लिए उनके उपदेशों व ग्रन्थों पर दृष्टि डालनी आवश्यक है। महर्षि दयानन्द ने योग की शिक्षा योग गुरूओं से प्राप्त की और वेदों की शिक्षा प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी गुरू विरजानन्द सरस्वती जी से सन् 1860 से सन् 1863 के मध्य मथुरा में प्राप्त की थी। गुरू वैदिक धर्मी देशवासियों की दुर्दशा से चिन्तित थे। उन्होंने प्रज्ञाचक्षु अर्थात् नेत्रान्ध होकर भी इसके उपायों पर विचार किया था और उन्हें लगा था कि महाभारत काल के बाद भारत में उत्पन्न अविद्या व अन्धविश्वास ही इसका मूल कारण हैं। उनका विश्वास था कि यदि भारत से अविद्या व अन्धविश्वासों को दूर कर सत्य ज्ञान के ईश्वरीय ग्रन्थ चार वेदों की सच्चे अर्थों में प्रतिष्ठा दी जाये तो न केवल धार्मिक व सामाजिक सुधार ही होगा अपितु विदेशियों की दासता से मुक्ति भी मिल सकती है। प्रज्ञाचक्षु होने के कारण वह अपने जीवन में सघन वैदिक प्रचार नहीं कर सके थे। उन्हें एक योग्य शिष्य की आवश्यकता थी जो उनके स्वप्नों को साकार कर सके। सौभाग्य से उन्हें स्वामी दयानन्द सरस्वती के रूप में एक योग्य अखण्ड आदर्श ब्रह्मचारी, सिद्ध योगी, गुरुभक्त व वेदों का अपूर्व विद्वान प्राप्त हुआ। इससे उनमें अपने स्वप्न की पूर्ति व सफलता के प्रति आशा बलवती हुई थी। स्वामी दयानन्द की विद्या पूरी होने पर उन्होंने उन्हें अपना सारा जीवन देश व संसार से वेदों के प्रचार द्वारा अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, सामाजिक कुप्रथायें आदि मिटाने के लिए अर्पित करने का अनुरोध किया था। स्वामी दयानन्द जी ने गुरुजी की वेदना व उनके प्रस्ताव की महत्ता को जानकर उन्हें इस कार्य को प्राणपण से पूरा करने का आश्वासन दिया और अपनी प्रतिज्ञा के पालन करने के लिए एक आदर्श ब्रह्मचारी, आदर्श योगी, आदर्श वेदवेत्ता, आदर्श उपदेशक, आदर्श देशभक्त, आदर्श समाज सुधारक के आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया।

स्वामी दयानन्द ने अपनी सभी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं व सिद्धान्तों को सत्य की कसौटी पर जांचा परखा व पूर्ण निष्पक्षता के साथ सत्य व यथार्थ विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों को अपनाया ही नहीं अपितु उनका देश देशान्तर में पुरजोर प्रचार व प्रसार किया। उनके प्रचार व प्रसार का ही प्रभाव है कि देश से धार्मिक अज्ञान, अविद्या व अन्धविश्वास सहित सामाजिक विषमता, दुर्बलता, अन्याय, अपराध, शोषण व पक्षपात के विरुद्ध अपूर्व वातावरण तैयार हुआ और दिन प्रतिदिन अज्ञान व अविद्या सहित सामाजिक विषमतायें दूर होकर सुधार होने लगा। उनके मुख्य कार्यों पर यदि दृष्टि डाली जाये तो उन्होंने धार्मिक अज्ञान के क्षेत्र में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, स्त्री व शूद्रों के वेदाध्ययन में अनधिकार, मृतक श्राद्ध आदि का विरोध व प्रबल खण्डन किया और ईश्वर की सत्य उपासना पद्धति, अग्निहोत्र यज्ञ का प्रचलन, माता-पिता-आचार्य-विद्वान-संन्यासियों की सेवा व सत्कार का समर्थन व पशु-पक्षियों के पोषण की प्रेरणा देश व समाज को दी। इस कार्य के लिए उन्होंने मौखिक उपदेश व व्याख्यानों से तो प्रचार किया ही, साथ ही वार्तालाप, शंका-समाधान और शास्त्रार्थों द्वारा भी अपनी मान्यताओं को सत्य की कसौटी पर कसकर विरोधियों को चुनौती दी और अपनी सभी मान्यताओं को सत्य व यथार्थ सिद्ध किया। उन्होंने प्रतिकूल विचारधारा वाले सभी मत-मतान्तरों के आचायों व विद्वानों को चुनौती दी परन्तु उनकी मान्यताओं का उनके समय में प्रचलित किसी धर्म, मत, मजहब, पन्थ, सम्प्रदाय के आचार्यों ने न तो खण्डन ही किया गया और न किसी ने अपनी ओर से स्वामीजी से शास्त्रार्थ की पहल व इच्छा कर स्वमत का मण्डन और स्वामीजी के मत का खण्डन ही किया। प्रायः सभी प्रमुख मत के विद्वानों स्वामीजी के शास्त्रार्थ हुए जिसमें उनका पक्ष ही सत्य सिद्ध हुआ। उनके द्वारा प्रचारित मान्यतायें आज भी सत्य की कसौटी पर खरी व सत्य सिद्ध हैं।

स्वामी जी यथार्थवादी थे इसकी पुष्टि उनके ग्रन्थ मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि से भी होती है। उन्होंने अपने समय के प्रायः सभी मतों व पन्थों के धार्मिक व सामाजिक नियमों व सिद्धान्तों की मिथ्या मान्यताओं का खण्डन सत्यार्थप्रकाश में किया है। विपक्षी न तो उनके समय में और न उनके बाद ही उनकी मान्यताओं का युक्ति प्रमाणपूर्वक प्रतिवाद व खण्डन ही कर सके। इस कारण से स्वामी दयानंद के सभी सिद्धान्त सत्य सिद्ध हैं। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में जिन मतों को अपनी समीक्षा के लिये चुना उनमें भारत में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों सहित चारवाक, बौद्ध, जैन, इस्लाम व ईसाई मत भी सम्मिलित हैं। इन सभी मतों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का उनके प्रमुख मान्य ग्रन्थों से उद्धरण देकर स्वामी दयानन्द ने सत्य, युक्ति व तर्क प्रमाण के आधार पर समीक्षा व आलोचना की है व उनमें विद्यमान अनेक असत्य मान्यताओं का प्रकाश किया है। न केवल उन्होंने वेद विरुद्ध मतों की आलोचना ही की अपितु सभी मतों में पाई जाने वाली सत्य बातों को भी स्वीकार किया है। वह चाहते थे कि सभी मत अपने अपने मतों की स्वयं समीक्षा कर, उसमें जो असत्य व अग्राह्य कथन है उनको निकाल कर, उनके स्थान पर युक्ति व प्रमाणों से सिद्ध सत्य मान्यताओं को प्रयोग में लायें जिससे मनुष्य जाति की उन्नति होकर सर्वत्र सुख की वृद्धि हो। इन प्रयासों का उनका भाव व इच्छा एक सत्यमत को निर्धारित कर उसका प्रचलन करने की भी थी और इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किया था परन्तु सभी मतों से अपेक्षा के अनुरुप सहयोग न मिलने के कारण उनका प्रयास सफल न हो सका। वह अपने जीवन के अन्तिम समय तक इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयास करते रहे। स्वामीजी ने सभी प्रकार की मूर्तिपूजा का खण्डन किया है। यह मूर्तिपूजा भी प्रायः सभी मतों में किसी न किसी रुप में विद्यमान है। वह अवतारवाद, ईश्वर के एकमात्र पुत्र व पैगम्बरवाद के विचारों से भी सहमत नहीं थे। वह सभी ऋषि-मुनियों व सच्चे धार्मिक विद्वानों को ईश्वर का पुत्र व सन्देशवाहक मानते थे। वह स्वयं भी ईश्वर के पुत्र थे और ईश्वर के सन्देशवाहक भी थे। स्वामीजी ने मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद का विरोध किया व स्त्रियों व दलितों के वेदाध्ययन का समर्थन भी किया। महाभारत के बाद वह सत्य अध्यात्मवाद की सेवा करने वाले प्रथम सर्वाधिक प्रभावशाली महापुरुष थे। स्वामी शंकराचार्य जी का अद्वैत मत अनेक युक्तियों व तर्कों पर आधारित होने पर भी उन्हें मान्य नहीं था। उन्होंने अनेक नये तर्क देकर ईश्वर व जीव की एकता का खण्डन किया और सच्चे एकेश्वरवाद का दिग्दर्शन कराकर उसका प्रचार किया। ईश्वर जीव की एकता के स्थान पर उन्होंने इन्हें कुछ गुणों की समानता और कुछ गुणों की भिन्नता के कारण दो पृथक सत्तायें सिद्ध किया। जड़ प्रकृति को वह संसार का तीसरा अविनाशी, अनादि, नित्य तत्व स्वीकार करते थे और उसका उन्होंने ईश्वर के आधीन व नियंत्रण में होना सिद्ध किया है। ईश्वर, जीव   प्रकृति की भिन्न पृथक सत्ता, यह त्रैतवाद ही सर्वाधिक पूर्ण युक्तियुक्त सत्य वैदिक सिद्धान्त है। इसको व अन्य सभी मतों के यथार्थ को जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन अभीष्ट है।

महर्षि दयानन्द ने वेदों सहित समस्त दुर्लभ वैदिक साहित्य का अध्ययन किया था। इसके लिए उन्होंने जो कठोर पुरुषार्थ किया वह प्रशंसनीय है। वह सत्य के प्रशंसक व अनुयायी होने के साथ अपने निजी स्वार्थों व सभी एषणाओं से मुक्त थे और सच्चे व आदर्श ब्रह्मचारी और ईश्वरभक्त थे। वह असत्य मत का लेशमात्र भी स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं थे जिस कारण सभी मतों के अनुयायी उनके विरोधी हो गये और उन्हें हानि पहुंचाने की ताक में रहते थे। अन्तोगत्वा उनके विरोधी जोधपुर में उनकी जीवनलीला समाप्त करने में सफल हुए जहां विष देकर उन्होंने उनका प्राणान्त कर दिया। स्वामी जी ने अपने जीवन की अन्तिम श्वांस से भी ईश्वर, जीव व प्रकृति की पृथक सत्ता होने का परिचय दिया और आज इस सिद्धान्त को अनेक तथ्यों व तर्कों से सिद्ध किया जाता है और यही अन्तिम सिद्धान्त बन गया है। महर्षि दयानन्द यथार्थवादी थे और यथार्थवाद जो कि वेदों का मुख्य सिद्धान्त विषय है। वेदों का यथार्थवाद ही उनका आदर्श था और वेदों को सम्पूर्णता से जानने समझने में वह पूर्ण अपूर्व अधिकारी थे। वह अतुल्य वैदुष्य के धनी थे। उन्होंने अनेक युक्तियों प्रमाणों से वेद को मनुष्यमात्र का सर्वाधिक कल्याणकारी ईश्वर प्रदत्त ज्ञान सिद्ध किया जिसके लिए वह इतिहास में अमर हो गये हैं। उनकी धार्मिक विषयों में अकाट्य युक्तियां उनके यथार्थवादी होने का प्रमाण देती है और इस दृष्टि से वह संसार के सभी महापुरुषों से भिन्न, यूनिक अकेले हैं जिनकी समानता अन्य किसी से नहीं है सिवाय अपने गुरू स्वामी विरजानन्द अपने विद्वान अनुयायियों से। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “सत्य के आग्रही व यथार्थवादी महर्षि दयानन्द

  • मनमोहन भाई ,लेख के अनुसार सुआमी दया नन्द जी एक यथारथवादी महान पुर्ष थे जिन्होंने वेदों का अधियन करके सिद्ध कर दिया कि जो आज हो रहा है वोह हिन्दू धर्म का बिगुड़ा हुआ रूप ही है . लेकिन इस में एक बात और भी है कि बहुत कम लोग होते हैं जो ग्रंथों का धियान से मुतालिया करते हैं ,मैं खुद भी उन में शामल हूँ . पता नहीं कितनी दफा हम ने धार्मिक आस्थानों पर जाते हुए शर्धालूओं को भीड़ के कारण अपनी जान गंवाते हुए देखा है ,पत्नी एक दम बोल देती है ” किया जहालत है ,यह पागलपन नहीं तो और किया है “. उतराखंड में जब तबाही मची थी तो देवताओं के बड़े बड़े बुत्त पानी के परवाह से टूट गए देख कर वोह कहती थी कि भगवान् अपने आप को बचा नहीं सके . हिन्दू धर्म बहुत महान है और इस के रीवाइवल का बीड़ा सुआमी दया नन्द ने ही उठाया है ,इस को समझने की जरुरत है .

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह ही। आपके विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ। ईश्वर की प्राप्ति और उससे लाभ तो सही विधि से स्तुति प्रार्थना ध्यान व उपासना से ही प्राप्त होंगे अन्यथा यह मनुष्य जन्म लेना बेकार व व्यर्थ हो जाएगा। मूर्ति पूजा ईश्वर प्राप्ति की कोई सीढ़ी नहीं अपितु एक गहरी खाई है जिसमे गिर कर मनुष्य नष्ट हो जाता है अर्थात उपासना के उत्तम फलों से वंचित हो जाता है। यह दयानंद जी के विचार हैं। सादर।

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