गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : महफिल में भी खुद को उदास रखती हूँ

महफिल में भी खुद को उदास रखती हूँ
तेरे ख्यालों को मैं अपने पास रखती हूँ

अब तो कह देते है मेरे दोस्त भी मुझको
कि रुह में भी मैं तेरे अहसास रखती हूँ

नही जंचता अब हमें तसव्वुर में तेरे सिवा
तुझसे ही मिलन की मैं प्यास रखती हूँ

मैं तेरी धङकनो में उतर जाऊ साँसों की तरह
तेरी यादों में मरने का मैं अंदाज ख़ास रखती हूँ

न करें हमें कोई भी हालात अब कभी जुदा
दिन रात बस रब से यही अरदास रखती हूँ

तेरा आना जिँदगी का सबसे खूबसूरत तोहफा
तुझे संभाल तभी अपनी साँसोँ मेँ साँस रखती हूँ

एकता सारदा 

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने ektasarda3333@gmail.com

One thought on “ग़ज़ल : महफिल में भी खुद को उदास रखती हूँ

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    तेरा आना जिँदगी का सबसे खूबसूरत तोहफा

    तुझे संभाल तभी अपनी साँसोँ मेँ साँस रखती हूँ बहुत खूब !

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