धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

परमात्मा सर्वव्यापक है और हमको हर क्षण देखता व सुनता है: स्वामी चित्तेश्वरानन्द

ओ३म्

गुरूकुल पौंधा देहरादून में 24 नये ब्रह्मचारियों का उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न-

 

आर्यजगत का एक प्रसिद्ध गुरुकुल है श्रीमद् दयानन्द ज्योतिर्मठ आर्ष गुरुकुल, पौंधा जहां 21 अगस्त, 2016 को 24 नये ब्रह्मचारियों के गुरुकुलीय शिक्षा में प्रवेश के अवसर पर उनका उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न हुआ। इन संस्कारों का संलाचन गुरुकुल में पूर्व विद्वान ब्रह्मचारी प्राध्यापक डा. रवीन्द्र कुमार आर्य ने योग्यतापूर्वक किया। मन्त्र पाठ गुरुकुल के पूर्व ब्रह्मचारियों ने किया। इन संस्कारों में पितृ उपदेश भी एक मुख्य अंग होता है जिसका सम्पादन गुरुकुल पे्रमी और सहयोगी श्री कृष्ण मुनि वानप्रस्थ जी ने सम्पन्न कराया। पितृ उपदेश की कुछ बातें थीं कि ब्रह्मचारी को दिन मे नहीं सोना है, आचार्य के अधीन उसकी आज्ञा में रहकर वेद पढ़ने हैं, 12 वर्ष तक निरन्तर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना है, आचार्य के नियंत्रण में रहते हुए अधर्म के काम करने से बचना है, झूठ का सर्वथा त्याग करना है, गुरुजनों के सम्मुख गुरु के आसन से ऊंचे आसान पर नहीं बैठना है, अति स्नान, अति भोजन और लोभ आदि छोड़ना है, रात्रि के चौथे प्रहर में शय्या त्याग कर प्रातः चार बजे उठना है, सन्ध्योपासना सहित योगाभ्यास भी नित्य करना है, मांस का सेवन व रूखा भोजन नहीं करना है, सुविधाओं वाले वाहनों का प्रयोग नहीं करना है, धूप को सहन करना है व छाता नहीं लगाना है, तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ऊध्र्वरेता बनना है। पितृ उपदेश में यह भी कहा गया कि आज से विद्या अर्जित करने हेतु कठोर परिश्रम करना है, मितभाषी रहते हुए गुरु का उपदेश ग्रहण करना है। आज से मेखला व दण्ड को धारण करना है। प्राचीन काल में ब्रह्मचारी को भिक्षा लाकर उसे गुरु को देनी होती थी। उसी से गुरुकुल का प्रबन्ध होता है। यह परम्परा अब प्रायः बन्द हो गई है। इसका स्थान अब अन्य प्रकार से दान आदि के द्वारा गुरुकुल के लिए साधन जुटाने ने ले लिया है। ब्रह्मचारी को पितृ उपदेश में यह भी बताया जाता था कि उसे अपने गुरु का प्रिय विद्यार्थी बनना है। ब्रह्मचारी को आज के प्रथम दिन यह भी बता दिया जाता है कि प्रातःकाल 4.00 बजे उठकर व रात्रि 10.00 बजे शयन के समय आचार्य जी को नमस्कार करना है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर जितेन्द्रिय बनना और विद्या को आगे बढ़ाने का उपदेश श्री कृष्णमुनि वानप्रस्थ जी ने डा. रवीन्द्र आर्य जी के सहयोग से दिया। भिक्षा ग्रहण की क्रिया भी इस संस्कार में सम्पन्न कराई गई। आयोजन में सभी नये व पुराने ब्रह्मचारियों सहित गुरुकुल के आचार्य डा. यज्ञवीर जी, स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती, स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती, उत्तराखण्ड के पूर्व खेलमंत्री श्री नारायण सिंह राणा आदि सहित सभी नये ब्रह्मचारियों के अभिभावक एवं स्थानीय गुरुकुल प्रेमी सम्मिलित थे। उपनयन और वेदारम्भ संस्कार गुरुकुल की भव्य एवं विशाल यज्ञशाला में सम्पन्न हुआ। संस्कार सम्पन्न होने के बाद भजन, प्रवचन वा व्याख्यान का कार्यक्रम चला जिसके बाद सामूहिक भोज हुआ।

 

उपनयन व वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न होने के बाद आयोजन में विशेष रूप से पधारे स्वामी प्रणवानन्द जी के संन्यास गुरु स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी ने ब्रह्मचारियों व आश्रम में पधारे आर्यजनों को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि परमात्मा सर्वव्यापक है और हम सबको देख व सुन रहा है। उन्होंने ब्रह्मचारियों व अतिथियों को बताया कि हम सबका यह सौभाग्य है कि हमें विद्याध्ययन का यह गुरुकलीय वातावरण मिला है। गुरुकुल की वैदिक शिक्षा से मनुष्य देवता बनता है। उन्होंने कहा कि अन्य स्कूल व विद्यालय पैसा कमाने के स्थान हैं परन्तु इस गुरुकुल में मनुष्य मनुष्य व देवता बनता है। महाभारत काल के बाद देश में वैदिक शिक्षा टूट गई थी। स्वामी दयानन्द जी आये और उन्होंने वैदिक ज्ञान देकर सबको आलोकित कर देश और समाज से  मिथ्या ज्ञान को दूर किया। स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी ने कहा कि हम सब अंग्रेजी शिक्षा में दीक्षित होना चाहते हैं परन्तु गुरुकुलीय शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक व युवतियां अधिक सौभाग्यशाली हैं। हम किसी से पूछते हैं कि आप कौन है तो हमें आज के शिक्षितों से इसका सही उत्तर नहीं मिलता। वैदिक शिक्षा हमें बताती है कि हम एक चेतन सत्ता जीवात्मा’ है। हमारी शिक्षा का उद्देश्य हमें अपने यथार्थ स्वरूप, चेतन जीवात्मा से तथा ईश्वर के सच्चे स्वरूप से भी परिचित कराना मुख्य है। हमें गुरुकुल में रहते हुए वेदों को सर्वांगरूप में पढ़ना है। उन्होंने ब्रह्मचारियों के माता-पिताओं को कहा कि वह अपने बच्चों को विद्या समाप्ति पर ही अपने घर ले जायें। बीच में उनसे फोन आदि कर बातें न किया करें। इससे उनके अध्ययन में बाधा पहुंचती है। ऐसा न करके उन्हें स्वतन्त्रता से पढ़ने देना चाहिए। उन्होंने कहा कि गुरुकुल में बच्चे विद्या पढ़ने आये हैं। बच्चों को यहां रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना है। हमारा शरीर मां के माध्यम से ईश्वर बनाता है। संसार के सभी देशों में लोगों के शरीर ईश्वर ने ही एक समान बनायें है। कोई माता-पिता अपने बच्चों के शरीर नहीं बना सकते। स्वामी जी ने कहा कि हमें स्वयं को जानना है। हम सदा से इस ब्रह्माण्ड में रहते आ रहे हैं और सदा ही रहेंगे। हममें से किसी का आत्मा मरेगा नहीं। मृत्यु शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। स्वामी जी ने बच्चों को मनुष्य जीवन के बारे में बताते हुए कहा कि शरीर को तो शस्त्र से काटा जा सकता है परन्तु आत्मा को नहीं। अग्नि शरीर को तो जला देती है परन्तु हमारा आत्मा अग्नि से जलता नहीं। जल आत्मा को भिगो नहीं सकता और वायु आत्मा को सुखा नहीं सकती। यदि  हमारा शरीर स्वस्थ होगा तो हमारे जीवन की यात्रा आसान हो जायेगी। ब्रह्मचारियों को स्वामी जी ने कहा कि तुम्हें अपने गुरुजी को प्रसन्न रखना है। अपनी शुभकामनायें देते हुए स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर आपको शक्ति, बल और सामर्थ्य दें। आप विद्वान हों, ज्ञानवान और धनवान हों। इसी के साथ स्वामीजी ने अपने व्याख्यान को विराम दिया। स्वामी जी को जल्दी जाना था अतः पहले उनका प्रवचन कराया गया। इसके बाद यज्ञ प्रार्थना हुई और तत्पश्चात नव प्रविष्ट ब्रह्चारियों में से कुछ ने मिलकर संस्कार विधि के 16 संस्कारों के महत्व पर आधारित एक मधुर भजन प्रस्तुत किया।

 

गुरुकुल के आचार्य डा. यज्ञवीर जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि बालक के जन्म से पूर्व ही उसके संस्कार आरम्भ हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि वेद बताता है कि सभी उत्पन्न बालक व बालिकाओं का प्रथम वैदिक नाम ‘‘वेद” है क्योंकि पिता नामकरण संस्कार करते हुए को नामासि?’ का उत्तर त्वं वेदोऽसि’ कहकर देता है। वेद बच्चों का नाम इसलिए है कि उन्हें ईश्वर के ज्ञान वेद का अध्ययन कर अपने जीवन को वेदमय व वेदों के अनुरुप बना कर सार्थक करना है। उन्होंने कहा कि सभी माता-पिता अपनी सन्तानों को योग्य सन्तान बनाना चाहते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि आचार्य की तुलना में माता-पिता का उपदेश बच्चों पर अधिक प्रभाव डालता है। बच्चों की मातायें उनकी प्रथम गुरु हैं, पिता दूसरे और आचार्य तीसरे गुरु हैं। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि गुरुकुलीय शिक्षा में ब्रह्मचारियों का मन, बुद्धि, चित्त व हृदय तथा उनके व्रत भी अपने गुरु के अनुरूप हो जाते हैं। यही गुरुकल व गुरुकलीय शिक्षा की विशेषता, महत्व व उद्देश्य है। उन्होंने कहा कि आचार्य अपने ब्रह्मचारी के मन में अपनी समस्त विद्या प्रविष्ट करना चाहता है। यदि गुरुकुल के ब्रह्मचारी का मन गुरु के अनुरूप होगा तभी ब्रह्मचारी विद्या पढ़ सकता है और गुरु पढ़ा सकता है। इसे उन्होंने उदाहरणों से भी स्पष्ट किया। आचार्य जी ने कहा कि गुरुकुल में विद्या पढ़कर सभी ब्रह्मचारी ब्राह्मण बनते हैं। उन्होंने कहा कि ब्राह्मण ब्रह्म वा ईश्वर एवं वेदों के ज्ञानियों को कहते हैं। जो ब्रह्म को और वेदों की शिक्षाओं से हीन है, वह ब्राह्मण नहीं होते। उन्होंने कहा कि परमात्मा ने सबको समान बनाया है। जन्म से कोई छोटा व बड़ा नहीं होता। आचार्य जी ने कहा कि आचार्य जो वर्ण देता है, वही वर्ण ब्रह्मचारी का मान्य होता है। इसे उन्होंने वैदिक परम्परा बताया। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि हमारा प्रयास है कि हम अपने सभी विद्यार्थियों को गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण बनायें। उन्होंने यह भी बताया कि महाराज मनु ने एक, दो या तीन वेदों को पढ़े व जानने वालों को ही विवाह करने का अधिकार दिया है। उनके अनुसार वेदों के ज्ञान से रहित व्यक्ति मनु के अनुसार विवाह के अधिकारी नहीं होते। उन्होंने ब्रह्मचारियों को कहा कि आज आपने सत्य बोलने का व्रत लिया है। इसका जीवन में सदा पालन करना। आचार्य जी ने कहा कि स्वामी दयानन्द जी जैसा आचार्य इस धरती पर कहीं व कभी नहीं हुआ। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि अपने जीवन को आदर्श व श्रेष्ठ बनायें। अपने गुरुओं की अच्छाईयों को ही धारण करें, बुराईयों को न करें। सभी ब्रह्मचारी अपने जीवन में आगे बढ़े। सभी को मेरी शुभकामनायें।

 

आचार्य यज्ञवीर जी के प्रवचन के बाद ब्रह्मचारी अमित ने एक भजन सृष्टि से पहले अमर ओ३म् नाम था, आज भी है और कल भी रहेगा।1 सूरज की किरणों में उसी का तेज समाया है। फिर चांद सितारों में उसी की शीतल छाया है।। सारे जहां का वही एक कलाकार था, आज भी है और कल भी रहेगा।।2।। भंवरों का कानों में मधुर संगीत उसी का है। फूलों के यौवन में, सुरीला गीत उसी का है।। सृष्टि की गोद में उसी का दुलार था? आज भी है और कल भी रहेगा।।3।।’ भजन की दो और कड़िया भी थी जिन्हें विस्तार भय से नहीं दे रह हैं। श्रोताओं ने यह भजन बहुत पसन्द किया। वक्ता ने ब्रह्मचारियों को कहा कि उन्हें अधिक से अधिक विद्या प्राप्त करने के लिए अपने आचार्य का प्रिय ब्रह्मचारी बनना होगा।

 

आज के आयोजन मे पधारे उत्तराखण्ड राज्य के पूर्व खेल मंत्री श्री नारायण सिंह राणा ने अपने सम्बोधन में कहा कि भारत देश ऋषि, आचार्यों व गुरुओं की परम्परा वाला देश रहा है। रामायण से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में गुरु राजाओं की सन्तानों को अपने साथ वनों में ले जाते थे और वहां गुरुकुलों में उनकी शिक्षा-दीक्षा करते थे। शिष्य अपने गुरुकुलों व गुरुओं की रक्षा भी करते थे। उन्होंने मुस्लिम पराधीनता की याद दिलाई और कहा कि तब हमारे साथ अन्याय किया गया, शोषण हुआ और हमारे लोगों का बल प्रयोग कर धर्मान्तरण भी किया गया। विदेशी विधर्मियों ने हमारे देश और यहां के लोगों लूटा और भीषण जुल्म किये। विद्वान वक्ता ने कहा कि अंग्रेजों की गुलामी के काल मुख्यतः 1857 से 1947 तक हमारे लाखों लोगों का बलिदान हुआ तब जाकर हम आजाद हुए। अंग्रेजों ने अपनी गुलामी जारी रखने के लिए हमारे गुरुकुलों व प्राचीन शिक्षा पद्धति को नष्ट कर दिया और अपनी गुलाम पैदा करने वाली शिक्षा पद्धति के स्कूल भारत में खोले। श्री नारायण सिंह राणा जी ने कहा कि सभी लोगों को अपने बच्चे प्यारे होते हैं। अपने बच्चों को अंगे्रजी स्कूलों में न भेजकर जो माता-पिता यहां लायें हैं और अपने बच्चों को यहां गुरुकुल में प्रविष्ट कराया है, मैं उन्हें नमन करता हूं। इस गुरुकुल के बच्चे यहां पढ़ने के बाद कुछ सरकारी नौकरियां कर रहे हैं और कुछ आर्यसमाज के प्रचार के कामों में लगे हुए हैं। उन्होंने कहा कि इस गुरुकुल के बच्चों से हमें बहुत आशायें हैं। उन्होंने बच्चों को संस्कृत व हिन्दी सहित अन्य अनेक भाषायें पढ़ने को कहा। इससे देश-विदेश में वेदों का प्रचार करने में सहायता मिलेगी। राणा जी ने स्वामी प्रणवानन्द जी द्वारा देश भर में चलाये जा रहे 9 गुरुकुलों की चर्चा कर उनके कार्यों व देश व समाज को योगदान की प्रशंसा की। बच्चों को उन्होंने उपदेश दिया कि जीवन में समय का पालन करो और अनुशासन में रहो। अपने आचार्यों की सभी बातों का सदा पालन करो। यह कहकर उन्होंने अपने वक्तव्य को विराम दिया।

 

स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने अपने आशीर्वचनों में कहा कि वह 9 गुरुकुलों का संचालन कर रहे हैं। कल रात्रि को ही वह उड़ीसा के कन्या गुरुकुल से उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार करा कर लौटे थे। उन्होंने बताया कि उस गुरुकल में मेरे अलावा वहां की आचार्या शारदा जी, मेरे शिष्य श्री नरदेव जी और गुरुकुल की ब्रह्मचारियां ही थी जिन्होंने संस्कार के सब कार्यों को सम्पन्न किया। स्वामीजी ने कहा कि जब वह गुरुकल के आचार्यों और ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों को अनुशासनपूर्वक कार्य करते हुए देखते हैं तो उन्हें लगातार लम्बी-लम्बी यात्रायें करने पर भी कोई थकान नहीं होती। कन्या गुरुकुल का उपनयन संस्कार उत्सव सम्पन्न कराकर उसके अगले दिन वह उड़ीसा के अपने दूसरे गुरुकुल जो वहां 15 किमी. दूर है, गये थे। उन्होंने बताया कि दोनों गुरुकुलों के आचार्य व आचार्या में स्पर्धा है अपने गुरुकुल के बच्चों के अच्छे जीवन का निर्माण करने की। उड़ीसा से स्वामीजी कल ही गौतम नगर पहुंचे थे और रात्रि को सड़क यात्रा कर देहरादून के कार्यक्रम में पहुंचे। स्वामी जी ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय में जब भी कोई प्रतियोगिता होती है तो हमारे गुरुकुल गौतमनगर के ब्रह्मचारी वहां की स्पर्धाओं में भाग लेते हैं और प्रथम व द्वितीय पुरुस्कार उन्हीं को मिलते हैं। उन्होंने ब्रह्मचारी मोहित की भी चर्चा की और बताया कि शिक्षा में उनकी विशेष उपलब्धियों को राष्ट्रपति महोदय ने पुरस्कृत किया है। ब्रहमचारी मोहित गुरुकुल के विद्यार्थी और गुरुकुल के सहयोगी श्री कृष्णमुनि वानप्रस्थी जी के दौहित्र हैं। स्वामी जी ने बताया कि जब मुझे अवकाश होता है तो मैं अलीगढ़ के गुरुकुल में चला जाता हूं जहां स्वामी श्रद्धानन्द जी आचार्य हैं। स्वामी जी ने बताया कि उनके 9 गुरुकुलों में से एक गुरुकुल केरल में हैं जहां वह आते जाते रहते हैं और देहरादून से जाने के बाद भी वह वहां जा रहे हैं। स्वामीजी ने अपने जीवन में 5 बार अमरीका की यात्राओं की चर्चा की। स्वामी जी ने कहा कि क्षेत्रफल की दृष्टि से अमरीका बहुत बड़ा देश है। वहां एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए वायुयान का ही प्रयोग करना होता है जो तीन या चार घंटे में गंतव्य तक पहुंचाते हैं। स्वामीजी ने बताया कि हवाई यात्रा करके किसी देश को देखा व जाना नहीं जा सकता। इसलिए इस बार उन्होंने वहां अनेक स्थानों की यात्रायें बस के द्वारा अपने साथी डा. सोमदेव वेदालंकार और पं. धर्मपाल शास्त्री जी के साथ कीं और अमरीका को जाना व समझा। स्वामी जी ने कहा कि अमरीका से लौटने पर गुरुकुंल गौतमनगर के ब्रह्मचारियों से उन्होंने बातचीत की।  ब्रह्मचारियों ने स्वामी जी से पूछा अमरीका कैसा है? स्वामी जी ने उन्हें व हमें बताया कि अमरीका वह देश है जहां दूसरे देशों के लोग राज करते हैं। उन्होंने कहा कि मूल अमेरिकावासी वहां राज्याधिकारी नहीं हैं, यदि हैं तो बहुत कम। उन्होंने कहा कि वहां की स्थिति यह है कि हमारे गुरुकुल को कोई अन्य चलायें, हम नहीं। स्वामी जी ने यह भी बताया कि अमेरिका के लोगों को गणित बहुत कम आता है जबकि हमारे यहां बच्चे बड़े-बड़े पहाडें और जोड़, घटाओ, गुणा व भाग के प्रश्न जल्दी-जल्दी हल कर लेते हैं। स्वामी जी के अनुसार भारत के लगभग 35 लाख लोग अमेरिका में रहते हैं। स्वामीजी ने यह भी बताया कि अमरीका रंग को देखकर वीजा देता है। काले लोगों से वहां के लोग चिढ़ते हैं। स्वामीजी ने कहा कि मेरे अनुभव के अनुसार कोई देश भारत से अच्छा नहीं है। उन्होंने कहा कि आज भी हम भारतीय बहुत अच्छी स्थिति में हैं। स्वामीजी ने बताया कि वह सन् 1973 में पहली बार मारीशस गये थे। सन्ध्या-उपासना का फल बताते हुए सवामी जी ने कहा कि आत्मा का बल पढ़ता है तथा पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है। स्वामीजी ने सत्यार्थप्रकाश के आधार पर कहा कि माता का कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों को अक्षरों व शब्दों का शुद्ध उच्चारण करना सिखाये। स्वामीजी ने ऋषि के लघु ग्रन्थ व्यवहारभानु की चर्चा भी की और कहा कि हमें राजाओं व राज्याधिकारियों से बात करना व व्यवहार करना आना चाहिये। उन्होंने बताया कि हमारे साहित्य में नीति, व्यवहार व शिष्टाचार के ग्रन्थों की कमी नहीं है। हमें अपने पूर्वजों पर आस्था रखते हुए उनके बनाये ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। हिन्दी व इसकी देवनागरी लिपि सहित अन्य भाषाओं का ज्ञान भी हमें प्राप्त करना चाहिये। स्वामीजी ने कहा कि अंग्रेजी प्रायः हवाई अड़डे पर काम आती है, उसके बाद अन्यत्र वह फेल है। अपनी थाईलैण्ड देश की यात्रा का उल्लेख कर उन्होंने बताया कि वहां अंग्रेजी भाषा कोई नहीं जानता। उन्होंने कहा कि आज की दुनिया चालाक लोगों की है, अतः हमें अंग्रेजी अवश्य आनी चाहिये। भाषा को सीखने के लिए उसका अभ्यास करना भी आवश्यक होता है। स्वामीजी ने कहा कि वेद हमारा धर्म नहीं अपितु परम धर्म है। वेद न पढ़ने वाला पतित हो जाता है। उन्होंने कहा कि वेद पढ़ने के लिए समय लगाना पड़ेगा। स्वामी जी ने आचार्य अभयदेव जी का संस्मरण सुनाते हुए बताया कि वह आजादी के आन्दोलन में कानपुर की जेल में थे। वहां उन्होंने समय व्यतीत करने के लिए 360 चुने हुए वेद मन्त्रों की व्ख्याख्या वाला ‘‘वैदिक विनय” ग्रन्थ का निर्माण किया। उन्होंने कहा कि वेद मन्त्रों का अनेक बार उच्चारण करने से लाभ होता है और मन्त्रों के अर्थ व उनके रहस्य विदित होने लगते हैं। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए स्वामी जी ने प्रेरणा की कि आप सबको अपने धर्म और संस्कृति पर गौरवान्वित होना चाहिये।

 

कार्यक्रम का कुशलता पूर्वक संचालन कर रहे आर्य विद्वान प्रा. डा. रवीन्द्र आर्य ने स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती के उपदेश की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि भारतीय धर्म और संस्कृति आज भी विश्व में श्रेष्ठ है। शान्ति पाठ के बाद सामूहिक भोजन हुआ। हमें भी स्वामीजी के साथ बैठकर भोजन करने व वार्तालाप का अवसर मिला। गुरुकुल पधारे सभी अतिथि महानुभावों ने भोजन किया और सन्तोष व्यक्त किया। आज के कार्यक्रम में गुरुकुल के आचार्य धनंजय जी का न होना सभी को खटका। उनको आज मारीशस से गुरुकुल पहुंचना था परन्तु उनका प्रवास एक सप्ताह के लिए बढ़ जाने के कारण अब वह 28 अगस्त 2016 को देहरादून पहुंचेंगे। गुरुकुल से अपनी मधुर स्मृतियां लिये हुए हम अपने परिवार के सदस्यों के साथ घर लौट आये।

 

मनमोहन कुमार आर्य