धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

क्या मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल भौतिक सुख प्राप्त करना ही है?

ओ३म्

 

मनुष्य जीवन का क्या लक्ष्य है? यदि आजकल के सम्पन्न लोगों के जीवन पर दृष्टि डालें तो लगता है कि उनके जीवन का लक्ष्य उचित व अनुचित तरीकों से धन कमाना और उसका अधिक से अधिक संचय कर सुख सुविधाओं की वस्तुओं को प्राप्त करना, देश विदेश की यात्रायें करना, घूमना-फिरना ही है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या यही सब कुछ मनुष्य जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य है? इस प्रश्न का उत्तर जानने से पूर्व मनुष्य जीवन पर भी दृष्टिपात करना उचित होगा। माता-पिता से जन्म लेकर शिशु रूप में मनुष्य इस संसार में आता है और शारीरिक वृद्धि को प्राप्त करते हुए शैशवावस्था से किशोर व युवा बनता है। आरम्भिक जीवन के कुछ वर्ष शिक्षा प्राप्ती में व्यतीत होते जहां मनुष्य को जीवन व संसार विषयक ज्ञान कराया जाता है। स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला ज्ञान सांसारिक विषयों तक ही सीमित होता है। इसमें शरीर व संसार के बारे में ही विद्यार्थियों को बताया व समझाया जाता है। इस शिक्षा का परिणाम यह होता है कि मनुष्य नाना प्रकार के स्वास्थ्यवर्धक व स्वादिष्ट भोजन करने के साथ ही अल्प व अज्ञान के कारण मांस, अण्डे व अनेक अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करता है और धनोपार्जन कर सुख-सुविधाओं की वस्तुओं का संग्रह व संचय कर उनसे सुख भोगने को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य मान लेता है। युवावस्था के बाद वृद्धावस्था आती है और उसमें किसी रोग आदि से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इन लोगों को अपनी आत्मा व संसार को बनाने व चलाने वाली सत्ता के विषय में सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता। यदि मिले भी तो उसे बताने व समझाने वाले सच्चे ज्ञानी, विद्वान व मित्र उपलब्ध्ध नहीं होते। धर्म व अपने मत के आचार्यों व लोगों का भय व अज्ञानता भी मन व मस्तिष्क पर सवार रहती है। कोई किसी को बताने का प्रयास भी करे तो यह दूसरे मत का व्यक्ति है, कहकर उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। इस अविद्या के कारण आज सारा संसार, लगभग 99 प्रतिशत, अविद्या अर्थात् ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ ज्ञान व इसके प्रयोजनों व होने वाल लाभों से अपरिचित, अनभिज्ञ व वंचित हैं। इसमें दोष किसका है, इस पर विचार करने पर हमें लगता है कि सभी मतों के आचार्यों व उनके अनुययियों का जो सत्य की खोज में किंचित भी श्रम, पुरुषार्थ व तप नहीं करते हैं।

 

अब प्रश्न सामने आता है कि ईश्वर व जीवात्मा हैं भी या नहीं? ईश्वर है तो दिखाई क्यों नहीं देता? उसको कैसे जान सकते हैं? इसका उत्तर तो ज्ञानी लोग जो ईश्वर को यथार्थ रूप में जानते हैं यही देते हैं कि ईश्वर अभौतिक व अत्यन्त सूक्ष्म वा सर्वातिसूक्ष्म होने से हमारी आंख व चक्षु आदि इन्द्रियों से दिखाई नहीं देता। सभी मनुष्यों व प्राणियों के शरीरों में एक जीवात्मा होती है। अन्य मत के लोग जीवात्मा को Soul या रूह कहते हैं परन्तु इसको वेदों के ज्ञानियों के अतिरिक्त अन्य मनुष्य यथार्थ रूप में जानते नहीं हैं। कोई भी मनुष्य अल्पज्ञ व एकदेशी होने के कारण किसी भी विषय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। उसे अपने से अधिक ज्ञानियों की आवश्यकता होती है। पूर्ण ज्ञानी केवल सर्वव्यापक व सर्वज्ञ परमात्मा ही है। ज्ञानी मनुष्यों को यह ज्ञान सदग्रन्थों के स्वाध्याय व चिन्तन-मनन आदि अनेक कार्य व तप करने से प्राप्त होता है। यह पूर्णतया सत्य है कि ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान केवल वेदों व वैदिक साहित्य के अध्ययन, चिन्तन, मनन व ध्यान उपासना आदि साधनों को करके ही प्राप्त किया जा सकता है। संसार में जहां व जिस मत सम्प्रदाय में ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप का जितना भी ज्ञान है वह सब वहां सुदूर अतीत काल में वेदों से ही पहुंचा है। अतः सद्ज्ञान की प्राप्ति केवल वेदों के अध्ययन व उसके विद्वानों की संगति से ही हो सकती है। वेद ईश्वर व जीवात्मा को एक चेतन व सूक्ष्म सत्ता बताते हैं। ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है और जीवात्मा अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम है। यह जीव अणु परिमाण वाला है। ईश्वर व जीव अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देते। किसी भी वस्तु को उसके गुणों व लक्षणों को देखकर व अनुभव कर ही जाना जाता है। इसी प्रकार से उस वस्तु का होना भी विज्ञान द्वारा सिद्ध माना जाता है। सृष्टि, प्राणियों व संसार में नाना प्रकार के असंख्य पदार्थों की उत्पत्ति व उपस्थिति को देखकर ईश्वर की सिद्धि होती है। इनका बनाने वाला व अस्तित्व में लाने वाला केवल व केवल एक ईश्वर ही है। इसी प्रकार मनुष्यों व सभी प्राणियों के शरीरों को चलाने वाला एक जीवात्मा होता है जो कि अनात्म व अचेतन शरीर से पूर्णतया पृथक एक आत्म, चेतन पदार्थ व तत्व है। ईश्वर व आत्मा के स्वरूप को विस्तार से जानने के लिए वेदों सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया जा सकता है जहां इनका विशद यथार्थ वर्णन सुलभ होता है जिसे पढ़कर व जानकर पूरा सन्तोष जिज्ञासु व अध्येता को होता है। संक्षेप में इतना बता दें कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप है। वह निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर ज्ञानस्वरुप, प्रकाशस्वरुप, सुखस्वरुप, कर्मफल के बन्धों से पूर्णतया मुक्त, जन्ममरण आदि से मुक्त, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म मृत्यु प्रदान करने सहित उन्हें सुख दुःख देने वाला है। ईश्वर जीवात्मा के भीतर भी व्यापक है और जीव ईश्वर से व्याप्य है। यही ईश्वर सभी मनुष्यों द्वारा उपासनीय है। जीवात्मा सत्य चेतन सत्ता है। यह अनादि, अनुत्पन्न, अवनाशी, अमर, अल्पज्ञ, एकदेशी, अणु परिमाण, ससीम, जन्ममरण के चक्र में आबद्ध, कर्मानुसार सुख दुखों का भोक्ता, कर्म करने में स्वतन्त्र फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। इन विषयों के अधिक ज्ञान के लिए सत्यार्थ प्रकाश, योग व सांख्य दर्शन सहित वेदोध्ययन की शरण लेनी चाहिये।

 

जीवात्मा व ईश्वर का स्वरुप जान लेने पर मनुष्य जीवन का मुख्य कर्तव्य ईश्वर प्राप्ति वा ईश्वर साक्षात्कार को जानकर उसकी उपासना से ईश्वर की निकटता प्राप्त करना है। ईश्वर की निकटता से दुगुर्ण, दुव्र्यस्न और दुःखों की निवृति व भद्र गुणों की प्राप्ति होती है। आत्मा का बल पढ़ता है। निरन्तर लम्बी अवधि तक उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार भी होता है  जिससे वह जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। जन्म व मृत्यु के बन्धनों से मुक्त होने सहित मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र मार्ग ईश्वर की उपासना व साक्षात्कार ही है। यह केवल वैदिक विधि से उपासना करने से ही उपलब्ध होता है अन्यथा सम्भव नहीं है। सभी मनुष्यों के जीवन में सुख व दुःख दोनो ही होते हैं। मनुष्य दुःखों से बचना चाहता है परन्तु उसे दुःखों से बचने का स्थायी उपाय समझ में नहीं आता। संसार में दुःखों से स्थाई रूप से मुक्ति का साधन ईश्वर की यथार्थ उपासना के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। मत-मतान्तरों में जो पूजा पाठ-व भक्ति आदि की जाती है वह यथार्थ ईश्वर की यथार्थ उपासना नहीं है।

 

अतः जो लोग सारा जीवन स्कूली शिक्षा लेकर धनोपार्जन व नाना प्रकार के सुखों यथा स्वादिष्ट सामिष निरामिष भोजन, यात्रा व भ्रमण, सुख के साधनों की प्राप्ति, नाच, गाना आदि में ही व्यतीत करते हैं वह एकांगी जीवन जीते हैं जिससे दुःखों से स्थाई मुक्ति नहीं हो सकती। यह स्थिति ऐसे मनुष्यों की अज्ञानता व अविद्या को प्रकट करती है। उन्हें अपने नाना प्रकार के कृत्यों का क्या-क्या परिणाम हो सकता है, यह ज्ञान नहीं होता। यदा-कदा छोटा-बड़ा दान व कुछ परोपकार कर व अन्य कोई मजहबी कार्य करके वह स्वर्ग व ऐसे कल्पित सुखों की अपेक्षा रखते हैं। ऐसा सोचना व मानना कुछ ऐसा ही है जैसे खूब मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है।’ हमें अनुभव होता है कि आधुनिक जीवन पद्धति का एक मात्र लक्ष्य भौतिक सुखों की प्राप्ति है जो हमें यथार्थ आध्यात्मिक सुखपूर्ण जीवन से दूर ले जाती है। हम यदि उपेक्षा आध्यात्मिक जीवन पद्धति की उपेक्षा करेंगे तो परिणाम में हम इससे मिलने वाले लाभों से वंचित होंगे। सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के प्रति उत्तरदायी है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने के कारण से हमारे व सबके प्रत्येक कर्मों का साक्षी है। अतः कोई व्यक्ति कोई भी बुरा काम या पाप कर ईश्वर दण्ड से बच नहीं सकता। पुनर्जन्म भी अवश्यम्भावी है। अवशिष्ट कर्मों के फल अगले जन्म मनुष्य व निम्न पशु आदि योनियों में भोगने ही होंगे। ईश्वर ने हमें स्वतन्त्रता दी है हम चाहें प्रेय मार्ग को चुने जो कि प्रायः सभी कर रहे है या श्रेय मार्ग का चयन करें, जो मोक्ष व मुक्ति में ले जाता है तथा जिसे महर्षि दयानन्द व उनके कुछ अनुयायियों ने चुना था। विवेकपूर्ण मार्ग का चयन कर जीवन की उन्नति करना ही उचित है। इति।

 

मनमोहन कुमार आर्य