जीने दो
जीने दो
यही है
छोटा सा घर मेरा
ये चार दीवारें
मेरी सीमाएं
मदमस्त दौड लगाती हूं
पर दीवारों से टकराती हूं
स्वाद नहीं
यहाँ खाने में
पानी भी फीका है
ना दोस्त कोई
ना हमसाया
अकेलापन है मेरा साथी
हवा भी नकली
फिज़ा भी नकली
मेरा ये संसार है नकली
क्यों मेरी सुन्दरता पर
इतने मोहित होते हो
मुझसे मेरा घर छीनकर
शीशे में रख देते हो
जैसे तुम जीना चाहते हो
अधिकार अपने मांगते हो
मुझे भी जीने दो
मेरी आजादी भी ना छीनो
जियो और जीने दो
अर्जुन नेगी
कटगांव किन्नौर हिमाचल
इंसान अपने लिए तो तमाम सुख सुविधाओं की चाहत रखता है लेकिन अन्य प्राणियों को नाना तरह से तकलीफ देकर उसमें अपना मनोरंजन ढूँढता है । शीशे के घर में कैद मछली की व्यथा का बखूबी वर्णन किया है आपने । धन्यवाद ।
सार्थक प्रतिक्रिया के लिया हार्दिक धन्यवाद सर