हिन्दी नहीं रहेगी तो देश टूट जायेगा: प्रा. अनूप सिंह
ओ३म्
हिन्दी दिवस के अवसर पर
–आर्यसमाज, देहरादून में 11 सितम्बर, 1994 को दिया गया प्रवचन–
14 सितम्बर, 2016 को हिन्दी दिवस है। इस अवसर पर हम आर्य विद्वान प्रा. अनूप सिंह जी (1944-2001) का हिन्दी के महत्व और आर्यसमाज के हिन्दी के प्रचार प्रसार में योगदान पर एक पुराने व्याख्यान को प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रा. अनूप सिंह आर्यसमाज में हमारे प्रवेश में हमारे एक प्रमुख प्रेरणास्रोत थे व जीवनभर हमारे गुरु, मित्र, प्रेरक व सहयोगी रहे। श्री अनूप सिंह जी के इस व्याख्यान को हमने ही नोट कर पत्र-पत्रिकाओं में प्रसारित किया था। श्री अनूप सिंह जी का व्याख्यान प्रस्तुत है।
आर्यसमाज, धामावाला, देहरादून में 11 सितम्बर, 1994 को आयोजित हिन्दी दिवस के अवसर पर मुख्य प्रवचन करते हुए देहरादून के प्रसिद्ध आर्य विद्वान प्रा. अनूप सिंह ने कहा कि यदि देश में हिन्दी भाषा नहीं रहेगी तो देश टूट जायेगा। कुम्भ का मेला उजड़ जायेगा, उन्नति अवरुद्ध हो जायेगी और सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न होगी। भारत भूमि का महत्व बताते हुए उन्होंने कहा कि एक बार स्वर्ग के देवताओं से पूछा गया कि उनकी यदि कोई इच्छा हो तो बतायें। उन सभी देवताओं ने भारत भूमि में जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की। श्री अनूप सिंह जी ने कहा कि यह बात युगों पुरानी है जब भारत में वैदिक राज्य था और बड़ी संख्या में ऋषि-मुनि व आर्य राजा देश के अधिपति होते थे। देश वेदों की शिक्षाओं के आधार पर चलता था। उन्होंने कहा कि आज के भारत में कोई देवता जन्म लेना नहीं चाहेगा। उनके अनुसार जिस समय देवताओं ने भारत में जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की थी तब का भारत अन्धविश्वासों से पूरी तरह मुक्त था और भारत की एक मात्र भाषा ‘‘संस्कृत” थी जिसका प्रयोग बोलचाल सहित साहित्य लेखन आदि में भी होता था। संस्कृत से इतर अन्य किसी भाषा का उन दिनों भारत में प्रचलन नहीं था।
विद्वान वक्ता अनूप सिंह जी ने मनुस्मृति के श्लोक ‘‘एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्म। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।“ को प्रस्तुत किया और कहा कि तब विश्व के सभी विशिष्ट लोग हमारे ही देश आर्यावर्त-भारत में शिक्षा प्राप्त करने आते थे। तब यह भारत भूमि सुवर्ण भूमि के सदृश्य थी। संस्कृत भाषा के पराभव के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने कहा कि अब हम गूंगे हो गये हैं, हमारी जुबान काट दी गई है।
विद्वान वक्ता श्री अनूप सिंह जी ने कहा कि 15 अगस्त, 1947 को आजादी के तुरन्त बाद गांधी जी का बी.बी.सी. से एक सन्देश प्रसारित किया गया था जिसमें उन्होंने कहा था कि संसार के लोगों से कह दो कि गांधी अब अंग्रेजी नहीं जानता। अनूप सिंह जी ने कहा कि इस संदेश के पीछे गांधी जी की भावना यह थी कि अंग्रेजी ने देश का सर्वनाश किया है। आगे उन्होंने कहा कि गांधी जी ने यह स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता आंदोलन ने जनांदोलन का रूप तब प्राप्त किया जब हिन्दी उसका माध्यम बनी।
आर्यसमाज और इसके संस्थापक महर्षि दयानन्द की चर्चा करते हुए अनूप सिंह जी ने कहा कि उनकी मातृभाषा गुजराती थी और वह संस्कृत उद्भट वक्ता व व्याख्याता थे तथापि उन्होंने अपने सभी ग्रन्थ हिंदी में लिखे। उनका सारा पत्रव्यवहार भी हिंदी में ही है जो आज भी किसी एक व्यक्ति द्वारा लिखे गये पत्रों की तुलना में सर्वाधिक है। स्वामी दयानंद पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने गूढ़ धार्मिक सिद्धान्तों को सर्वपव्रथम देवनागरी लिपि में हिंदी में प्रस्तुत किया। उनसे पूर्व हिंदी के विद्वान धार्मिक मान्यताओं में सर्वथा अपरिचित एवं अनभिज्ञ थे। मुसलमानों की धर्म पुस्तक कुरान का सर्वप्रथम हिंदी अनुवाद भी महर्षि दयानन्द ने ही कराया जो परोपकारिणी सभा अजमेर के संग्रहालय में उपलब्ध है। अंग्रेज सरकार द्वारा राजभाषा की संस्तुति के लिए गठित हण्टर कमीशन का उल्लेख कर विद्वान वक्ता श्री अनूप सिंह ने बताया कि हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने के लिए महर्षि दयानन्द ने देश भर में प्रभावशाली हस्ताक्षर अभियान चलाया था जिसे मेमोरेण्डम के साथ प्रस्तुत कर आर्यभाषा हिन्दी को राजभाषा बनाने की मांग की गई थी। पराधीनता के काल में हिन्दी को राजभाषा बनाये जाने के समर्थन में यह प्रथम व्यापक ऐतिहासिक जनान्दोलन था। श्री अनूप सिह जी ने कहा कि आर्यसमाजी विद्वानों एवं आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं ने भी हिंदी के प्रचार-प्रसार में सर्वोपरि योगदान किया है।
श्री अनूप सिंह जी ने जलियांवाला बाग काण्ड के पश्चात कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन की चर्चा कर बताया कि आर्यसमाज के प्रमुख नेता और अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द ने कांग्रेस के मंच से पहली बार हिंदी में भाषण कर कांग्रेस के लिए इतिहास में नया अध्याय जोड़ा था।
आर्य विद्वान् श्री अनूप सिंह ने आगे कहा कि संविधान सभा ने 14 सितम्बर 1949 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर हिंदी को राजभाषा स्वीकार किया था। उन्होंने रोमन अंकों को प्रयोग किये जाने संबंधी संविधान सभा के निर्णय को कलंक की संज्ञा दी। प्रसिद्ध आर्य विद्वान ने इस संबंध में अंग्रेजी मानसिकता के विद्वानों द्वारा प्रचारित षडयंत्र का भी उल्लेख किया जिसके अनुसार संविधान सभा में हिंदी राजभाषा का एक मत से (सर्वसम्मति से नहीं अपितु केवल एक मत के बहुमत से) स्वीकार किया जाना है। अनपूप सिंह जी ने कहा कि संविधान सभा का निर्णय सर्वसम्मत था, एकमत (यूनैनिमस) था एक-मत के बहुमत से नहीं था।
विद्वान वक्ता अनूपसिंह ने कहा कि गांधी जी सर्वमान्य नेता तभी बने जब उन्होंने हिंदी को अपनाया। उन्होंने आगे कहा कि हिंदू महासभा के अध्यक्ष वीर सावरकर ने बादशाह राम और बेगम सीता वाले रुप का विरोध कर कहा था कि हिंदी का स्वरुप सत्यार्थप्रकाश में लिखी हिंदी के अनुरुप होना चाहिये।
श्री अनूप सिंह जी ने आगे कहा कि लार्ड टी.वी. मैकाले ने 7 मार्च सन् 1835 को अंग्रेजी को अध्ययन का माध्यम बनाया था और अपने पिता को एक पत्र में लिखा था कि उसका विश्वास है कि आने वाले 30 वर्षों में सभी पठित भारतीय व्यक्ति रंग-रुप एवं खून से तो हिंदू होगा लेकिन मानसिकता एवं विचारों की दृष्टि से ईसाई और अंग्रेजी-प्रेमी होगा। (यह स्थिति कुछ सीमा तक सही सिद्ध हुई है। आज अंग्रेजी का बोलबाला है। हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर बोला जाता है।) मधुवर्षी वक्ता ने कहा कि अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने के पीछे का रहस्य मैकाले के ही शब्दों में स्पष्ट है। वह भारत को गुलाम बनाये रखना और हिन्दुओं का भाषान्तरण करना चाहते थे जो धर्मान्तरण व संस्कृति व सभ्यता के परिवर्तन का ही एक प्रकार से पूरक होता है।
विद्वान वक्ता के अनुसार नशीले पदार्थ व ड्रग्स आदि का सेवन करने वाले नब्बे प्रतिशत सब लोग अंग्रेजी भाषा से प्रभावित लोग होते हैं। उन्होंने कहा कि इस देश की संस्कृति एवं सभ्यता में ढला व्यक्ति नशीले पदार्थों के सेवन को बुरा मानता है। आगे उन्होंने कहा कि संस्कृत एवं हिन्दी पढ़े लोग आत्महत्या नहीं करते जबकि अधिकांश आत्म हत्यायें अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग करते हैं।
आर्य विद्वान अनूप सिंह जी ने कहा कि अंग्रेजी भाषा ने देश का सर्वनाश किया है और हमारी चिंतन शैली को कुप्रभावित किया है। उन्होंने कहा कि लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजी के प्रभाव में आकर लिखा था कि आर्य भारत में बाहर से आये थे जबकि संस्कृत भाषा के इतिहास के प्राचीन ग्रंथों का गहन अध्ययन कर स्वामी दयानन्द ने आर्यों को भारत का मूल निवासी सिद्ध किया है। अनूप सिंह जी ने कहा कि स्वामी दयानंद बुराईयों से इस लिए बचे रहे क्योंकि वह अंग्रेजी से दूर थे।
भारत के राजनैतिक नेताओं के ‘‘हिंदी थोपी नहीं जायेगी” विषयक बयानों का उल्लेख कर श्री अनूप सिंह जी ने कहा कि इन बयानों से ही हिंदी पद्च्युत हुई है। इस्राइल के प्रघानमंत्री मोसे दयान की पत्नी द्वारा हिब्रू भाषा पर पत्रकारों द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में कहे गये शब्दों को वक्ता ने प्रस्तुत कर कहा कि कोई भी भाषा मृत नहीं होती अपितु उसके पढ़ने और पढ़ाने में आनाकानी करने वाले व्यक्ति मृत हुआ करते हैं। अंग्रेजी के समर्थन में प्रस्तुत किये जाने वाले तर्कों का प्रतिवाद कर विद्वान वक्ता श्री अनूप सिंह ने कहा कि रुस, जापान, चीन आदि देशों में अंग्रेजी न होने पर भी यह विज्ञान एवं तकनीकी सहित सभी क्षेत्रों में उन्नत हैं। अपने विस्तृत वक्तव्य में श्री अनूप सिंह ने हिन्दी के अन्य अनेक पहलुओं पर भी प्रकाश डाला। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन आर्य ने किया। कक्षा 10 की छात्रा कु. प्रीति ने आज के साप्ताहिक सत्संग में स्वलिखित तीन कविताओं का पाठ प्रस्तुत किया। गाजियाबाद से पधारे आर्य प्रचारक श्री इन्द्र सेन विश्वप्रेमी ने भी अपने विचार प्रस्तुत किये। आर्य भजनोपदेशक पं. सुगनचन्द व ढोलक वादक दीपक द्वारा प्रस्तुत भजन व संगीत ने लोगों को भक्तिरस से भर दिया। पं. शान्तिस्वरूप जी ने सामूहिक प्रार्थना कराई। प्रशासक श्री राजेन्द्र काम्बोज के नेतृत्व में प्रातः 7-30 बजे से सन्ध्या व यज्ञ से आज का सत्संग आरम्भ हुआ जो सोत्साह सम्पन्न हुआ।
श्री राजेन्द्रनाथ पाण्डेय जी ने लेख पर अपनी टिप्पणी में कहा है कि यह लेख आज भी प्रासंगिक है। अन्य लगभग 46 व्यक्तियों ने भी इस लेख को पसन्द किया है। हम आशा करते हैं कि हिन्दी दिवस की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत यह लेख पाठकों को पसन्द आयेगा।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा . हमारे देश की राष्ट्र भाषा तो होनी ही चाहिए . आज बात बात पे लोग इंग्लिश का पर्योग करते हैं ,सिर्फ यह दिखाने के लिए वोह पढ़े लिखे हैं . हम इस बात को बहुत नोट करते हैं . कई लोग तो बोलते बोलते इंग्लिश का and बोल देते हैं और हम इस पर हंस पढ़ते हैं .कई आधी हिंदी या पंजाबी और आधी इंग्लिश बोलते हैं . बीस साल पुरानी याद ताज़ा हो गई, हमारे कुछ रिश्तेदार मुम्बई से आये और एक सत्री हर बात इंग्लिश में बोले जबकि मेरी बेतीआं पंजाबी में बात करती थी, हालांकि उन का जनम इंग्लैंड का है . सुबह उठ कर वोह महमान जब आये तो जो मेरी पत्नी का भांजा था, बोला ” मासी हमें शर्म आ रही है की मेरी बीवी इंग्लिश बोलती है और मेरी बहनें यहाँ रहते हुए भी पंजाबी बोलती हैं “, एक दिन शाम को हमारी बिटिया की सहेलीआं घर आ गईं और वोह इतनी फास्ट इंग्लिश बोल रही थीं कि मुम्बई से आई सत्री उन का मुंह देख रही थी और वोह कुछ नहीं बोल रही थी . आपस में हमें अपनी माद्री भाषा में बोलना चाहिए और साथ ही देश की राष्ट्र भाषा भी जरुरी है . भारत की सभी भाषाएँ भी जिंदा रहेंगी और राष्ट्र भाषा भी .
बहुत ही उत्कृष्ट रचना आदरणीय । आज समय की मांग है की हमें राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को पुनर्स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए । खासकर दक्षिण भारत जैसी जगहों पर जहां हिंदी विरोधी मानसिकता पनपती है । हमें अपने ही देश में वार्तालाप के लिए विदेशी भाषा का सहारा लेना पड़ता है । यह स्थिति दुखद है । यहाँ हिंदी का प्रचार प्रसार करने से राष्ट्रीयता की भावना अवश्य बलवती होगी और देश एकता के सूत्र में बंधेगा । धन्यवाद ।
रानी पटरानी दासी के समान लगती है, जाने कब स्वर्णमयी प्रात फिर आएगी !
देवनागरी की गागरी भरेगी अमृत से, मृतक जनों में नव प्राण फूँक जाएगी !
देश की अनेकता को एकता में बाँधने को, देख लेना हिन्दी सही भूमिका निभाएगी,
हिन्दी की लगाए बिना बिंदी निज भाल पे ना, भारत माँ कभी भी सुहागिन कहाएगी !!
—राष्ट्र-कवि सारस्वत मोहन ‘मनीषी’