सामाजिक

दलित समाज और ईसाई मिशनरी

Indian Dalit - untouchable - Christians and Muslims sit in the rain during a protest rally against the National Commission for Scheduled Castes and Scheduled Tribes for its recent rejection of the demand for reservation for Dalit Christians and Muslims, in New Delhi on August 1, 2012. Thousands of protestors, church leaders, nuns, bishops and priests of the National United Christian Forum demanded that the United Progressive Alliance (UPA) government grant equal rights and reservation for the Dalit Christians and Muslims. AFP PHOTO/RAVEENDRAN

पिछले कुछ दिनों से समाचार पत्रों के माध्यम से भारत में दलित राजनीती की दिशा और दशा पर बहुत कुछ पढ़ने को मिला। रोहित वेमुला, गुजरात में ऊना की घटना, महिशासुर शहादत दिवस आदि घटनाओं को पढ़कर यह समझने का प्रयास किया कि इस खेल में कठपुतली के समान कौन नाच रहा है, कौन नचा रहा है, किसको लाभ मिल रहा है और किस की हानि हो रही हैं। विश्लेषण करने के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि भारत के दलित कठपुतली के समान नाच रहे है, विदेशी ताकतें विशेष रूप से ईसाई विचारक, अपने अरबों डॉलर के धन-सम्पदा, हज़ारों कार्यकर्ता, राजनीतिक शक्ति, अंतराष्ट्रीय स्तर की ताकत, दूरदृष्टि, NGO के बड़े तंत्र, विश्वविद्यालयों में बैठे शिक्षाविदों आदि के दम पर दलितों को नचा रहे हैं और इसका तात्कालिक लाभ भारत के कुछ राजनेताओं को मिल रहा है और इससे हानि हर उस देशवासी की की हो रही हैं जिसने भारत देश की पवित्र मिटटी में जन्म लिया है।
हम अपना विश्लेषण 1947 से आरम्भ करते है। अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने पर अंग्रेज पादरियों ने अपना बिस्तर-बोरी समेटना आरम्भ ही कर दिया था क्योंकि उनका अनुमान था कि भारत अब एक हिन्दू देश घोषित होने वाला है। तभी भारत सरकार द्वारा घोषणा हुई कि भारत अब एक सेक्युलर देश कहलायेगा। मुरझायें हुए पादरियों के चेहरे पर ख़ुशी कि लहर दौड़ गई। क्योंकि सेक्युलर राज में उन्हें कोई रोकने वाला नहीं था। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात संसार में शक्ति का केंद्र यूरोप से हटकर अमेरिका में स्थापित हो गया। ऐसे में ईसाईयों ने भी अपने केंद्र अमेरिका में स्थापित कर लिए। उन्हीं केंद्रों में बैठकर यह विचार किया गया कि भारत में ईसाइयत का कार्य कैसे किया जाये। भारत में बसने वाले ईसाईयों में 90% ईसाई दलित समाज से धर्म परिवर्तन कर ईसाई बने थे। इसलिए भारत के दलित को ईसाई बनाने के लिए रणनीति बनाई गई। यह कार्य अनेक चरणों में आरम्भ किया गया।
1.   शोध के माध्यम से शैक्षिक प्रदुषण
ईसाई पादरियों ने सोचा कि सबसे पहले दलितों के मन से उनके इष्ट देवता विशेष रूप से श्री राम और रामायण को दूर किया जाये।  क्योंकि जब तक राम भारतियों के दिलों में जीवित रहेंगे तब तक ईसा मसीह अपना घर नहीं बना पाएंगे। इसके लिए उन्होंने सुनियोजित तरीके से शैक्षिक प्रदुषण का सहारा लिया। विदेश में अनेक विश्वविद्यालयों में शोध के नाम पर श्री राम और रामायण को दलित और नारी विरोधी सिद्ध करने का शोध आरम्भ किया गया। विदेशी विश्वविद्यालयों में उन भारतीय छात्रों को प्रवेश दिया गया जो इस कार्य में उनका साथ दे। रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, कांचा इलैयह आदि इसी रणनीति के पात्र हैं। कुछ उदहारण देकर हम सिद्ध करेंगे कि कैसे श्री राम जी को दलित विरोधी, नारी विरोधी, अत्याचारी आदि सिद्ध किया गया। शम्बूक वध की काल्पनिक और मिलावटी घटना को उछाला गया और श्री राम जी के शबरी भीलनी और निषाद राजा केवट से सम्बन्ध को अनदेखी जानकर करी गई। श्री राम को नारी विरोधी सिद्ध करने के लिए सीता की अग्निपरीक्षा और अहिल्या उद्धार जैसे काल्पनिक प्रसंगों को उछाला गया जबकि दासी मंथरा और महारानी कैकयी के साथ वनवास के पश्चात लौटने पर किये गए सदव्यवहार और प्रेम की अनदेखी करी गई। वीर हनुमान और जामवंत को बन्दर और भालू कहकर उनका उपहास किया गया जबकि वे दोनों महान विद्वान्, रणनीतिकार और मनुष्य थे। इन तथ्यों की अनदेखी करी गई। रावण को अपने बहन शूर्पनखा के लिए प्राण देने वाला भाई कहकर महिमामंडित किया गया श्री राम और उनके भाइयों को राजगद्दी से बढ़कर परस्पर प्रेम को वरीयता देने की अनदेखी करी गई। श्री कृष्ण जी के महान चरित्र के साथ भी इसी प्रकार से बेईमानी करी गई। उन्हें भी चरित्रहीन, कामुक आदि कहकर उपहास का पात्र बनाया गया। इस प्रकार से नकारात्मक खेल खेलकर भारतीय विशेष रूप से दलितों के मन से श्री राम की छवि को बिगाड़ा गया।
2. वेदों के सम्बन्ध में भ्रामक प्रचार
 इस चरण का आरम्भ तो बहुत पहले यूरोप में ही हो गया था। इस चरण में वेदों के प्रति भारतीयों के मन में बसी आस्था और विश्वास को भ्रान्ति में बदलकर उसके स्थान पर बाइबिल को बसाना था। इस चरण में मुख्य लक्ष्य दलितों को रखकर निर्धारित किया गया। ईसाई मिशनरी भली प्रकार से जानते है कि गोरक्षा एक ऐसा विषय है जिस से हर भारतीय एकमत है।  इस एक विषय को सम्पूर्ण भारत ने एक सूत्र में उग्र रूप से पिरोया हुआ हैं। इसलिए गोरक्षा को विशेष रूप से लक्ष्य बनाया गया। हर भारतीय गोरक्षा के लिए अपने आपको बलिदान तक करने के तैयार रहता है।  उसकी इसी भावना को मिटाने के लिए वेद मन्त्रों के भ्रामक अर्थ किये गए। वेदों में मनुष्य से लेकर हर प्राणिमात्र को मित्र के रूप में देखने का सन्देश मिलता है। इस महान सन्देश के विपरीत वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि जबरदस्ती शोध के नाम पर प्रचारित किये गए। इस प्रचार का नतीजा यह हुआ कि अनेक भारतीय आज गो के प्रति ऐसी भावना नहीं रखते जैसी पहले उनके पूर्वज रखते थे। दलितों के मन में भी यह जहर घोला गया। पुरुष सूक्त को लेकर भी इसी प्रकार से वेदों को जातिवादी घोषित किया गया। जिससे दलितों को यह प्रतीत हो की वेदों में शुद्र को नीचा दिखाया गया है।  इसी वेदों के प्रति अनास्था को बढ़ाने के लिए वेदों के उलटे सीधे अर्थ निकाले गए।  जिससे वेद धर्मग्रंथ न होकर जादू-टोने की पुस्तक, अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाली पुस्तक लगे। यह सब योजनाबद्ध रूप में किया गया। इसी सम्बन्ध में वेदों में आर्य-द्रविड़ युद्ध की कल्पना करी गई जिससे यह सिद्ध हो की आर्य लोग विदेशी थे।
3.  बुद्ध मत को बढ़ावा
 वेदों के विषय में भ्रान्ति फैलाने के पश्चात ईसाईयों ने सोचा कि दलित समाज से वेदों को तो छीनकर उनके हाथों में बाइबिल पकड़ाना इतना सरल नहीं है।  उनकी इस मान्यता का आधार उनके पिछले 400 वर्षों के इस देश में अनुभव था। इसलिए उन्होंने इतिहास के पुराने पाठ को स्मरण किया। 1200 वर्षों में इस्लामिक आक्रान्तों के समक्ष  धर्म परिवर्तन हिन्दू समाज में उतना नहीं हुआ जितना बोद्ध मतावली में हुआ। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा तक फैला बुद्ध मत तेजी से लोप होकर इस्लाम में परिवर्तित हो गया।  जबकि इस्लाम की चोट से बुद्ध मत भारत भूमि से भी लोप हुआ, मगर हिन्दू धर्म बलिदान देकर, अपमान सहकर किसी प्रकार से अपने आपको सुरक्षित रखा। ईसाई मिशनरी ने इस इतिहास से यह निष्कर्ष निकाला कि दलितों को पहले बुद्ध बनाया जाये और फिर ईसाई बनाना उनके लिए सरल होगा। इसी कड़ी में डॉ अम्बेडकर द्वारा बुद्ध धर्म ग्रहण करना ईसाईयों के लिए वरदान सिद्ध हुआ। डॉ अम्बेडकर के नाम के प्रभाव से दलितों को बुद्ध बनाने का कार्य आज ईसाई करते है। इस कार्य को सरल बनाने के लिए विदेशी विश्विद्यालयों में महात्मा बुद्ध और बुद्ध मत पर अनेक पीठ स्थापित किये गए। यह दिखाने का प्रयास किया गया कि भारत का गौरवशाली इतिहास महात्मा बुद्ध से आरम्भ होता है। उससे पहले भारतीय जंगली, असभ्य और बर्बर थे। पतंजलि योग के स्थान पर बुद्धिस्ट ध्यान अर्थात विपश्यना को प्रचलित किया गया। कुल मिलाकर ईसाई मिशनरियों का यह प्रयास दलितों को महात्मा बुद्ध के खूंटे से बांधने का था।
4 . सम्राट अशोक को बढ़ावा
इस चरण में ईसाई मिशनरियों द्वारा श्री राम चंद्र के स्थान पर सम्राट अशोक को बढ़ावा दिया गया। राजा अशोक को मौर्या वश का सिद्ध कर दलितों का राजा प्रदर्शित किया गया और राजा राम को आर्यों का राजा प्रदर्शित किया गया। इस प्रयास का उद्देश्य श्री राम आर्यों  के विदेशी राजा थे और अशोक मूलनिवासियों के राजा था। ऐसा भ्रामक प्रचार किया गया। इस प्रकार का मुख्य लक्ष्य श्री राम से दलितों को दूर कर सम्राट अशोक के खूंटे से जोड़ना था। इस कार्य के लिए अशोक द्वारा कलिंग युद्ध के पश्चात बुद्ध मत स्वीकार करने को इतिहास बड़ी घटना के रूप में दिखाना था। अशोक को महान समाज सुधारक, जनता का सेवक, कल्याणकारी प्रदर्शित किया गया। कुएं बनवाना, अतिथिशाला बनवाना, सड़कें बनवाना, रुग्णालय बनवाना जैसी बातों को अशोक राज में महान कार्य बताया गया। जबकि इससे बहुत काल पहले राम राज्य के सदियों पुराने न्यायप्रिय एवं चिरकाल से स्मरण किये जा रहे उच्च शासन की कसौटी को भुलाने का प्रयास किया गया। यह बहुत बड़ा छल था।  जबकि अशोक राज के इस तथ्य को छुपाया गया कि अशोक ने राज सेना को भंग करके सभी सैनिकों को बोद्ध भिक्षुक बना दिया गया और राजकोष को बोद्ध विहार बनाने के लिए खाली कर दिया था। अशोक की इस सनक से तंग आकर मंत्रिमंडल ने अशोक को राजगद्दी से हटा दिया था और अशोक के पौत्र को राजा बना दिया था। अशोक के छदम अहिंसावाद के कारण संसार का सबसे शक्तिशाली राज्य मगध कालांतर में कलिंग के राजा खारवेला से हार गया था। यह था क्षत्रियों के हथियार छीनकर उन्हें बुद्ध बनाने का नतीजा। इस प्रकार से ईसाईयों ने श्री राम की महिमा को दबाने के लिए अशोक को खड़ा किया।
5. आर्यों को विदेशी बनाना
 यह चरण सफ़ेद झूठ पर आधारित था। पहले आर्यों को विदेशी और स्थानीय मुलनिवासियों को स्वदेशी प्रचारित किया गया। फिर यह कहा गया कि विदेशी आर्यों ने मूलनिवासियों को युद्ध में परास्त कर उन्हें उत्तर से दक्षिण भारत में भगा दिया। उनकी कन्याओं के साथ जबरदस्ती विवाह किया। इससे उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों में दरार डालने का प्रयास किया गया। इसके अतिरिक्त नाक के आधार पर और रंग के आधार पर भी तोड़ने का प्रयास किया। इससे दाल नहीं गली तो हिन्दू समाज से अलग प्रदर्शित करने के लिए सवर्णों को आर्य और शूद्रों को अनार्य सिद्ध करने का प्रयास किया गया। सत्य यह है कि इतिहास में एक भी प्रमाण आर्यों के विदेशी होने और हमलावर होने का नहीं मिलता। ईसाईयों की इस हरकत से भारत के राजनेताओं ने बहुत लाभ उठाया।  फुट डालों और राज करो कि यह नीति बेहद खतरनाक है।
6. ब्राह्मणवाद और मनुवाद का जुमला
 यह चरण बेहद आक्रोश भरा था। दलितों को यह दिखाया गया कि सभी सवर्ण जातिवादी है और दलितों पर हज़ारों वर्षों से अत्याचार करते आये है। जातिवाद को सबसे अधिक ब्राह्मणों ने बढ़ावा दिया है। जातिवाद कि इस विष लता को खाद देने के लिए ब्राह्मणवाद का जुमला प्रचलित किया गया। हमारे देश के इतिहास में मध्य काल का एक अंधकारमय युग भी था। जब वर्णव्यवस्था का स्थान जातिवाद ने ले लिया था। कोई व्यक्ति ब्राह्मण गुण,कर्म और स्वाभाव के स्थान पर नहीं अपितु जन्म के स्थान पर प्रचलित किया गया। इससे पूर्व वैदिक काल में किसी भी व्यक्ति का वर्ण, उसकी शिक्षा प्राप्ति के उपरांत उसके गुणों के आधार पर निर्धारित होता था। इस बिगाड़ व्यवस्था में एक ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण कहलाने लगा चाहे वह अनपढ़, मुर्ख, चरित्रहीन क्यों न हो और एक शुद्र का बेटा केवल इसलिए शुद्र कहलाने लगा क्योंकि उसका पिता शुद्र था। वह चाहे कितना भी गुणवान क्यों न हो। इसी काल में सृष्टि के आदि में प्रथम संविधानकर्ता मनु द्वारा निर्धारित मनुस्मृति में जातिवादी लोगों द्वारा जातिवाद के समर्थन में मिलावट कर दी गई। इस मिलावट का मुख्य उद्देश्य मनुस्मृति से जातिवाद को स्वीकृत करवाना था। इससे न केवल समाज में विध्वंश का दौर प्रारम्भ हो गया अपितु सामाजिक एकता भी भंग हो गई। स्वामी दयानंद द्वारा आधुनिक इतिहास में इस घोटाले को उजागर किया गया। ईसाई मिशनरी की तो जैसे मन की मुराद पूरी हो गई। दलितों को भड़काने के लिए उन्हें मसाला मिल गया। मनुवाद जैसी जुमले प्रचलित किये गए। मनु महर्षि को उस मिलावट के लिए गालियां दी गई जो उनकी रचना नहीं थी। इस वैचारिक प्रदुषण का उद्देश्य हर प्राचीन गौरवशाली इतिहास और उससे सम्बंधित तथ्यों के प्रति जहर भरना था। इस नकारात्मक प्रचार के प्रभाव से दलित समाज न केवल हिन्दू समाज से चिढ़ने लगे अपितु उनका बड़े पैमाने पर ईसाई धर्मान्तरण करने में सफल भी रहे। हालांकि जिस बराबरी के हक के लिए दलितों ने ईसाईयों का पल्लू थामा था।  वह हक उन्हें वहां भी नहीं मिला। यहाँ वे हिन्दू दलित कहलाते थे, वहां वे ईसाई दलित कहलाते हैं। अपने पूर्वजों का उच्च धर्म खोकर भी वे निम्न स्तर जीने को आज भी बाधित है और अंदर ही अंदर अपनी गलती पर पछताते है।
7. इतिहास के साथ खिलवाड़
 इस चरण में बुद्ध मत का नाम लेकर ईसाई मिशनरियों द्वारा दलितों को बरगलाया गया। भारतीय इतिहास में बुद्ध मत के अस्त काल में तीन व्यक्तियों का नाम बेहद प्रसिद्द रहा है। आदि शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और पुष्यमित्र शुंग। इन तीनों का कार्य उस काल में देश, धर्म और जाति की परिस्थिति के अनुसार महान तप वाला था। जहाँ एक ओर आदि शंकराचार्य ने पाखंड,अन्धविश्वास, तंत्र-मंत्र, व्यभिचार की दीमक से जर्जर हुए बुद्ध मत को प्राचीन शास्त्रार्थ शैली में परास्त कर वैदिक धर्म की स्थापना करी गई वहीँ दूसरी ओर कुमारिल भट्ट द्वारा माध्यम काल के घनघोर अँधेरे में वैदिक धर्म के पुनरुद्धार का संकल्प लिया गया। यह कार्य एक समाज सुधार के समान था। बुद्ध मत सदाचार, संयम, तप और संघ के सन्देश को छोड़कर मांसाहार, व्यभिचार, अन्धविश्वास का प्रायः बन चूका था।  ये दोनों प्रयास शास्त्रीय थे तो तीसरा प्रयास राजनीतिक था। पुष्यमित्र शुंग मगध राज्य का सेनापति था। वह महान राष्ट्रभक्त और दूरदृष्टि वाला सेनानी था। उस काल में सम्राट अशोक का नालायक वंशज बृहदरथ राजगद्दी पर बैठा था। पुष्यमित्र ने उसे अनेक बार आगाह किया था कि देश की सीमा पर बसे बुद्ध विहारों में विदेशी ग्रीक सैनिक बुद्ध भिक्षु बनकर जासूसी कर देश को तोड़ने की योजना बना रहे है। उस पर तुरंत कार्यवाही करे। मगर ऐशो आराम में मस्त बृहदरथ ने पुष्यमित्र की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। विवश होकर पुष्यमित्र ने सेना के निरीक्षण के समय बृहदरथ को मौत के घाट उतार दिया। इसके पश्चात पुष्यमित्र ने बुद्ध विहारों में छिपे उग्रवादियों को पकड़ने के लिए हमला बोल दिया। ईसाई मिशनरी पुष्यमित्र को एक खलनायक, एक हत्यारे के रूप में चित्रित करते हैं।  जबकि वह महान देशभक्त था।  अगर पुष्यमित्र बुद्धों से द्वेष करता तो उस काल का सबसे बड़ा बुद्ध स्तूप न बनवाता। ईसाई मिशनरियों द्वारा आदि शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और पुष्यमित्र को निशाना बनाने के कारण उनकी ब्राह्मणों के विरोध में दलितों को भड़काने की नीति थी। ईसाई मिशनरियों ने तीनों को ऐसा दर्शाया जैसे वे तीनों ब्राह्मण थे और बुद्धों को विरोधी थे। इसलिए दलितों को बुद्ध होने के नाते तीनों ब्राह्मणों का बहिष्कार करना चाहिए। इस प्रकार से इतिहास के साथ खेलते हुए सत्य तथ्यों को छुपाकर ईसाईयों ने कैसा पीछे से घात किया।  पाठक स्वयं निर्णय कर सकते है।
8.  हिन्दू त्योहारों और देवी -देवताओं के नाम पर भ्रामक प्रचार
  ईसाई  मिशनरी ने हिन्दू समाज से सम्बंधित त्योहारों को भी नकारात्मक प्रकार से प्रचारित करने का एक नया प्रपंच किया। इस खेल के पीछे का इतिहास भी जानिए। जो दलित ईसाई बन जाते थे।  वे अपने रीति-रिवाज, अपने त्योहार बनाना नहीं छोड़ते थे। उनके मन में प्राचीन धर्म के विषय में आस्था और श्रद्धा धर्म परिवर्तन करने के बाद भी जीवित रहती थी। अब उनको कट्टर बनाने के लिए उनको भड़काना आवश्यक था। इसलिए ईसाई मिशनरियों ने विश्वविद्यालयों में हिन्दू त्योहारों और उनसे सम्बंधित देवी देवतों के विषय में अनर्गल प्रलाप आरम्भ किया। इस पषड़यंत्र का एक उदहारण लीजिये। महिषुर दिवस का आयोजन दलितों के माध्यम से कुछ विश्विद्यालयों में ईसाईयों ने आरम्भ करवाया। इसमें शौध के नाम पर यह प्रसिद्द किया गया कि काली देवी द्वारा अपने से अधिक शक्तिशाली मूलनिवासी राजा के साथ नौ दिन तक पहले शयन किया गया। अंतिम दिन मदिरा के नशे में देवी ने शुद्र राजा महिषासुर का सर काट दिया। ऐसी बेहूदी, बचकाना बातों को शौध का नाम देने वाले ईसाईयों का उद्देश्य दशहरा, दीवाली, होली, ओणम, श्रावणी आदि पर्वों को पाखंड और ईस्टर, गुड फ्राइडे आदि को पवित्र और पावन सिद्ध करना था। दलित समाज के कुछ युवा भी ईसाईयों के बहकावें में आकर मूर्खता पूर्ण हरकते कर अपने आपको उनका मानसिक गुलाम सिद्ध कर देते है। पाठक अभी तक यह समझ गए होंगे की ईसाई मिशनरी कैसे भेड़ की खाल में भेड़िया जैसा बर्ताव करती है।
9. हिंदुत्व से अलग करने का प्रयास
ईसाई समाज की तेज खोपड़ी ने एक बड़ा सुनियोजित धीमा जहर खोला। उन्होंने इतिहास में जितने भी कार्य हिन्दू समाज द्वारा जातिवाद को मिटाने के लिए किये गए । उन सभी को छिपा दिया। जैसे भक्ति आंदोलन के सभी संत कबीर, गुरु नानक, नामदेव, दादूदयाल, बसवा लिंगायत, रविदास आदि ने उस काल में प्रचलित धार्मिक अंधविश्वासों पर निष्पक्ष होकर अपने विचार कहे थे। समग्र  रूप से पढ़े तो हर समाज सुधारक का उद्देश्य समाज सुधार करना था। जहाँ कबीर हिन्दू पंडितों के पाखंडों पर जमकर प्रहार करते है वहीं मुसलमानों के रोजे, नमाज़ और क़ुरबानी पर भी भारी भरकम प्रतिक्रिया करते है। गुरु नानक जहाँ हिन्दू में प्रचलित अंधविश्वासों की समीक्षा करते है वहीँ इस्लामिक आक्रांता बाबर को साक्षात शैतान की उपमा देते है। इतना ही नहीं सभी समाज सुधारक वेद, हिन्दू देवी-देवता, तीर्थ, ईश्वर आराधना, आस्तिकता, गोरक्षा सभी में अपना विश्वास और समर्थन प्रदर्शित करते हैं। ईसाई मिशनरियों ने भक्ति आंदोलन पर शोध के नाम पर सुनियोजित षड़यंत्र किया। एक ओर उन्होंने समाज सुधारकों द्वारा हिन्दू समाज में प्रचलित अंधविश्वासों को तो बढ़ा चढ़ा कर प्रचारित किया वहीँ दूसरी ओर इस्लाम आदि पर उनके द्वारा कहे गए विचारों को छुपा दिया। इससे दलितों को यह दिखाया गया कि जैसे भक्ति काल में संत समाज ब्राह्मणों का विरोध करता था और दलितों के हित की बात करता था वैसे ही आज ईसाई मिशनरी भी ब्राह्मणों के पाखंड का विरोध करती है और दलितों के हक की बात करती है। कुल मिलकर यह सारी कवायद छवि निर्माण की है। स्वयं को अच्छा एवं अन्य को बुरा दिखाने के पीछे ईसा मसीह के लिए भेड़ों को एकत्र करना एकमात्र उद्देश्य है। ईसाई मिशनरी के इन प्रयासों में भक्ति काल में संतों के प्रयासों में एक बहुत महत्वपूर्ण अंतर है। भक्ति काल के सभी हिन्दू समाज के महत्वपूर्ण अंग बनकर समाज में आई हुई बुराइयों को ठीक करने के लिए श्रम करते थे। उनका हिंदुत्व की मुख्य विचारधारा से अलग होने का कोई उद्देश्य नहीं था। जबकि वर्तमान में दलितों के लिए कल्याण कि बात करने वाली ईसाई मिशनरी उनके भड़का कर हिन्दू समाज से अलग करने के लिए सारा श्रम कर रही है।  उनका उद्देश्य जोड़ना नहीं तोड़ना है। पाठक आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते है।
10. सवर्ण हिन्दू समाज द्वारा दलित उत्थान का कार्य
पिछले 100 वर्षों से हिन्दू समाज ने दलितों के उत्थान के लिए अनेक प्रयास किये। सर्वप्रथम प्रयास आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद द्वारा किया गया। आधुनिक भारत में दलितों को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने वाले, सवर्ण होते हुए उनके हाथ से भोजन-जल ग्रहण करने वाले, उन्हें वेद मंत्र पढ़ने, सुनने और सुनाने का प्रावधान करने वाले, उन्हें बिना भेदभाव के आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करने का विधान देने वाले, उन्हें वापिस से शुद्ध होकर वैदिक धर्मी बनने का विधान देने वाले अगर कोई है तो स्वामी दयानंद है। स्वामी दयानंद के चिंतन का अनुसरण करते हुए आर्यसमाज ने अनेक गुरुकुल और विद्यालय खोले जिनमें बिना जाति भेदभाव के समान रूप से सभी को शिक्षा दी गई।  अनेक सामूहिक भोज कार्यक्रम हुए जिससे सामाजिक दूरियां दूर हुए। अनेक मंदिरों में दलितों को न केवल प्रवेश मिला अपितु जनेऊ धारण करने और अग्निहोत्र करने का भी अधिकार मिला। इस महान कार्य के लिए आर्यसमाज के अनेकों कार्यकर्ताओं ने जैसे स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द आदि ने अपना जीवन लगा दिया। यह अपने आप में बड़ा इतिहास है।
     इसी प्रकार से वीर सावरकर द्वारा रत्नागिरी में पतितपावन मंदिर की स्थापना करने से लेकर दलितों के मंदिरों में प्रवेश और छुआछूत उनर्मुलन के लिए भारी प्रयास किये गए। इसके अतिरिक्त वनवासी कल्याण आश्रम, रामकृष्ण मिशन आदि द्वारा वनवासी क्षेत्रों में भी अनेक कार्य किये जा रहे हैं। ईसाई मिशनरी अपने मीडिया में प्रभावों से इन सभी कार्यों को कभी उजागर नहीं होने देती। वह यह दिखाती है कि केवल वही कार्य कर रहे है। बाकि कोई दलितों के उत्थान का कार्य नहीं कर रहा है। यह भी एक प्रकार का वैचारिक आतंकवाद है। इससे दलित समाज में यह भ्रम फैलता है कि केवल ईसाई ही दलितों के शुभचिंतक है। हिन्दू सवर्ण समाज तो स्वार्थी और उनसे द्वेष करने वाला है।
11. मीडिया का प्रयोग
  ईसाई मिशनरी ने अपने अथाह साधनों के दम पर सम्पूर्ण विश्व के सभी प्रकार के मीडिया में अपने आपको शक्तिशाली रूप में स्थापित कर लिया है। उन्हें मालूम है कि लोग वह सोचते हैं, जो मीडिया सोचने को प्रेरित करता है। इसलिए किसी भी राष्ट्र में कभी भी आपको ईसाई मिशनरी द्वारा धर्म परिवर्तन के लिए चलाये जा रहे गोरखधंधों पर कभी कोई समाचार नहीं मिलेगा। जबकि भारत जैसे देश में दलितों के साथ हुई कोई साधारण घटना को भी इतना विस्तृत रूप दे दिया जायेगा। मानों सारा हिन्दू समाज दलितों का सबसे बड़ा शत्रु है। हम दो उदहारणों के माध्यम से इस खेल को समझेंगे। पूर्वोत्तर राज्यों में ईसाई चर्च का बोलबाला है। रियांग आदिवासी त्रिपुरा राज्य में पीढ़ियों से रहते आये है। वे हिन्दू वैष्णव मान्यता को मानने वाले है।  ईसाईयों ने भरपूर जोर लगाया परंतु उन्होंने ईसाई बनने से इनकार कर दिया।  चर्च ने अपना असली चेहरा दिखाते हुए रियांग आदिवासियों की बस्तियों पर अपने ईसाई गुंडों से हमला करना आरम्भ कर दिया। वे उनके घर जला देते, उनकी लड़कियों से बलात्कार करते, उनकी फसल बर्बाद कर देते। अंत में कई रियांग ईसाई बन गए, कई त्रिपुरा छोड़कर आसाम में निर्वासित जीवन जीने लग गए। पाठकों ने कभी चर्च के इस अत्याचार के विषय में नहीं सुना होगा। क्योंकि सभी मानवाधिकार संगठन, NGOs, प्रिंट मीडिया, अंतराष्ट्रीय संस्थाएं  ईसाईयों के द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से संचालित हैं। इसके ठीक उल्ट गुजरात के ऊना में कुछ दलितों को गोहत्या के आरोप में हुई पिटाई को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे उठाया गया जैसे इससे बड़ा अत्याचार तो दलितों के साथ कभी हुआ ही नहीं है। रियांग आदिवासी भी दलित हैं। उनके ऊपर जो अत्याचार हुआ उसका शब्दों में बखान करना असंभव है। मगर गुजरात की घटना का राजनीतीकरण कर उसे उछाला गया। जिससे दलितों के मन में हिन्दू समाज के लिए द्वेष भरे। इस प्रकार से चर्च अपने सभी काले कारनामों पर सदा पर्दा डालता है और अन्यों की छोटी छोटी घटनाओं को सुनियोजित तरीके से मीडिया के द्वारा प्रयोग कर अपना ईसाईकरण का कार्यक्रम चलाता है। इसके लिए विदेशों से चर्च को अरबों रूपया हर वर्ष मिलता है।
12. डॉ अम्बेडकर और दलित समाज
ईसाई मिशनरी ने अगर किसी के चिंतन का सबसे अधिक दुरूपयोग किया तो वह संभवत डॉ अम्बेडकर ही थे। जब तक डॉ डॉ अम्बेडकर जीवित थे, ईसाई मिशनरी उन्हें बड़े से बड़ा प्रलोभन देती रही कि किसी प्रकार से ईसाई मत ग्रहण कर ले क्योंकि डॉ अम्बेडकर के ईसाई बनते ही करोड़ों दलितों के ईसाई बनने का रास्ता सदा के लिए खुल जाता।  उनका प्रलोभन तो क्या ही स्वीकार करना था। डॉ अम्बेडकर ने खुले शब्दों के ईसाइयों द्वारा साम,दाम, दंड और भेद की नीति से धर्मान्तरण करने को अनुचित कहा।  डॉ अम्बेडकर ने ईसाई धर्मान्तरण को राष्ट्र के लिए घातक बताया था। उन्हें ज्ञात था कि इसे धर्मान्तरण करने के बाद भी दलितों के साथ भेदभाव होगा। उन्हें ज्ञात था कि ईसाई समाज में भी अंग्रेज ईसाई, गैर अंग्रेज ईसाई, सवर्ण ईसाई,दलित ईसाई जैसे भेदभाव हैं। यहाँ तक कि इन सभी गुटों में आपस में विवाह आदि के सम्बन्ध नहीं होते है। यहाँ तक इनके गिरिजाघर, पादरी से लेकर कब्रिस्तान भी अलग होते हैं। अगर स्थानीय स्तर पर (विशेष रूप से दक्षिण भारत) दलित ईसाईयों के साथ दूसरे ईसाई भेदभाव करते है। तो विश्व स्तर पर गोरे ईसाई (यूरोप) काले ईसाईयों (अफ्रीका) के साथ भेदभाव करते हैं। इसलिए केवल नाम से ईसाई बनने से डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट इंकार कर दिया। जबकि उनके ऊपर अंग्रेजों का भारी दबाव भी था। डॉ अम्बेडकर के अनुसार ईसाई बनते ही हर भारतीय भारतीय नहीं रहता। वह विदेशियों का आर्थिक, मानसिक और धार्मिक रूप से गुलाम बन जाता है। इतने स्पष्ट रूप से निर्देश देने के बाद भी भारत में दलितों के उत्थान के लिए चलने वाली सभी संस्थाएं ईसाईयों के हाथों में है। उनका संचालन चर्च द्वारा होता है और उन्हें दिशा निर्देश विदेशों से मिलते है।
इस लेख के माध्यम से हमने यह सिद्ध किया है कि कैसे ईसाई मिशनरी दलितों को हिंदुओं के अलग करने के लिए पुरजोर प्रयास कर रही हैं। इनका प्रयास इतना सुनियोजित है कि साधारण भारतीयों को इनके षड़यंत्र का आभास तक नहीं होता। अपने आपको ईसाई समाज मधुर भाषी, गरीबों के लिए दया एवं सेवा की भावना रखने वाला, विद्यालय, अनाथालय, चिकित्सालय आदि के माध्यम से गरीबों की सहायता करने वाला दिखाता है।  मगर सत्य यह है कि ईसाई यह सब कार्य मानवता कि सेवा के लिए नहीं अपितु इसे बनाने के लिए करता है। विश्व इतिहास से लेकर वर्तमान में देख लीजिये पूरे विश्व में कोई भी ईसाई मिशन मानव सेवा के लिए केवल धर्मान्तरण के लिए कार्य कर रहा हैं। यही खेल उन्होंने दलितों के साथ खेला है। दलितों को ईसाईयों की कठपुतली बनने के स्थान पर उन हिंदुओं का साथ देना चाहिए जो जातिवाद का समर्थन नहीं करते है। डॉ अम्बेडकर ईसाईयों के कारनामों से भली भांति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने ईसाई बनना स्वीकार नहीं किया था। भारत के दलितों का कल्याण हिन्दू समाज के साथ मिलकर रहने में ही है। इसके लिए हिन्दू समाज को जातिवाद रूपी सांप का फन कुचलकर अपने ही भाइयों को बिना भेद भाव के स्वीकार करना होगा।
(इस लेख को पढ़कर हर हिन्दू जातिवाद का नाश करने का संकल्प अवश्य ले)