उपन्यास अंश

नई चेतना भाग-१०

अमर स्टेशन से निकल कर शीघ्र ही चौराहे पर पहुँच गया । चार रास्ते चार दिशाओं की तरफ जा रहे थे । यहाँ आकर वह पेशोपेश में पड़ गया । एक रास्ता स्टेशन की तरफ और दुसरा चौराहा पार करके सीधा रास्ता शायद विलासपुर शहर की तरफ जाता होगा ऐसा अमर का अनुमान था । लेकिन शिकारपुर के लिए बस किस तरफ से आएगी और किस तरफ जाएगी उसे बिलकुल भी अंदाजा नहीं लग रहा था । कहीं कोई सूचना पट भी नहीं था । आसपास भी कोई नजर नहीं आ रहा था । परेशानहाल अमर कुछ देर तक वहीं सड़क के किनारे एक तरफ खड़ा रहा और फिर थक कर  फूटपाथ पर बैठ गया ।

अब तक भोर की लालिमा छंट चुकी थी और सूर्य ने अपनी किरणें धरती पर बिखेरनी शुरू कर दी थी । सूर्य की किरणों के साथ ही सोई धरती में एक तरह से नव चैतन्य का संचार हो चुका था । सड़क के किनारे लगे पेड़ों पर चिड़ियों ने चहचहाना शुरू कर दिया था । दूर कहीं से मंदिर की घंटियाँ बजती सुनाई पड़ीं । घंटियों का स्वर कान में पड़ते ही अमर जूते नीकाल कर तुरंत ही खड़े हो गया और प्रभु स्मरण करने लगा ।

तभी उसे कुछ लोग आते दिखाई पड़े । नजदीक आने पर अमर ने देखा वो कुल चार लोग थे जिनमें से एक महिला भी थी ।  शिकारपुर की बस की बाबत पुछने पर उनमें से एक ने बताया कि वो लोग भी उसी बस से सफ़र करने वाले थे । उन्हें उससे आगे के गाँव नरसिंह पुर तक जाना था । शिकारपुर पहले ही पड़ता है। अब अमर को उम्मीद बंधी थी कि वह सही जा रहा है और इस तरफ से निश्चिन्त होकर आगे की संभावनाओं पर विचार करने लगा ।

थोड़ी देर बाद अमर बस में सवार हो शिकारपुर की तरफ बढ़ रहा था । बस में गिनती की सवारी थी । बस में सवार अमर खिड़की के किनारे बैठा बाहर के हसीं नज़ारे का लुत्फ़ उठा रहा था। सड़क छोटी ही सही लेकिन चिकनी थी क्योंकि बस बिना किसी उछलकूद के सरपट भागी जा रही थी । दो जगह रुकने के बाद ‘अब शिकारपुर आनेवाला है’ कंडक्टर द्वारा बताने के बाद अमर का दिल जोरों से धड़कने लगा था ।

थोड़ी ही देर में शिकारपुर के बस स्टॉप पर अमर को उतारकर बस आगे बढ़ चुकी थी । कुछ देर तक अमर जाती हुई बस को देखता रहा और फिर सामने ही गाँव की तरफ जाती पगडंडी पर आगे बढ़ गया ।

पगडण्डी के दोनों तरफ दूर दूर तक खेतों की क्यारियों में फसलें लहलहा रहीं थीं । कहीं कहीं गन्ने के खेत भी नजर आ रहे थे । नजदीक ही खेतों में गेहूं और मटर के बीच खीले पिले पिले सरसों के फूल बड़ा ही खुबसूरत नजारा पेश कर रहे थे । कहीं कहीं पत्तों पर चिपकी ओस की बूंदें सूरज की किरणों से जुगलबंदी कर हीरे की मानिंद चमक रही थी । रस्ते के दोनों ओर हरियाली का साम्राज्य फैला हुआ था । खाली पड़े खेतों में भी घास ने अपना आधिपत्य जमाकर हरियाली को बरक़रार रखा था ।

दूर पेड़ों के झुरमुट में से झांकते कच्चे पक्के घर आगे किसी गाँव के होने की गवाही दे रहे थे । उन्हीं घरों को लक्ष्य कर अमर आगे बढा जा रहा था । गाँव में घुसते ही एक घर के सामने खटिये पर बैठे एक बुजुर्ग अपने पोतों के साथ बैठे दिखे । अमर ने उन्हें नमस्ते किया और उनसे सरजू के बारे में पुछा ।

सरजू का नाम सुनकर वह बुजुर्ग अपने दिमाग पर जोर डालकर कुछ याद करते हुए से बोले ” सरजू नाम का तो कौनो इस गाँव में नहीं रहता है । उसके बाप का का नाम है ? कौन जाति का है ? ”

अमर के पास इन बातों का कोई जवाब नहीं था। बगलें झांकते हुए उसने प्रयास जारी रखा “सरजू नाम है उसका काका ! राजापुर शहर के विश्राम मिल में चपरासी का काम करता है । बस इतनी ही जानकारी है । ”

बुजुर्ग ने भी अपना सोचने का प्रयास जारी रखा । लेकिन उसे कुछ याद नहीं आया । तभी वहां से एक अधेड़ व्यक्ति सीर पर एक टोकरी रखे गुजरा । बुजुर्ग ने उसे आवाज लगायी “अरे भोला ! ओ भोला ! इधर आ । ये बाबु साहब किसी सरजू को पूछ रहे हैं और बता रहे हैं कि इसी गाँव में रहता है। मुझे तो याद नहीं आ रहा है । तू ही जानता हो तो बता दे। ”

भोला नामका वह व्यक्ति अमर के करीब आया और टोकरी जमीन पर रखते हुए अमर से मुखातिब हुआ ” उसके बाप का नाम जानते हो बाबूजी !” अमर ने शांति से उसे समझाने का प्रयास किया ” सरजू नाम है और राजापुर मिल में काम करता है। अभी कल ही शहर से गाँव आया है । ”

भोला ने जैसे ही सुना ‘अभी कल ही शहर से गाँव आया है बीच में बोल पड़ा- “बस ! बस ! समझ गया । काका ! इ बाबूसाहब तो पंचम राजभर के लडके सरजूआ की बात कर रहे हैं। अभी कल ही तो शहर से गाँव आया है। और काका ! सुना है उसके साथ कौनो छोकरिया भी है। ”

अभी वह बुजुर्ग कुछ कहता कि अमर बीच में ही बोल उठा- “हां हाँ ! भोलाजी ! वही है। उसके साथ एक लड़की भी है।”

अब बुजुर्ग की आँखें कुछ सोचने वाले अंदाज में सिकुड़ गयीं और भोला से मुखातिब होते हुए बोला ” इसका मतलब इ सरजूआ कुछ कांड कर आया है शहर में। नहीं तो इ बाबु काहें उसको खोजने आते।”

” हाँ काका ! हमको भी ऐसा ही लग रहा है । ” फिर अमर की तरफ मुड़ते हुए बोला ” देखो बाबूजी ! इ सवर्णों का टोला है । इसी रस्ते से आगे जाओगे तो तुमको गाँव के बाहर एक बस्ती दिखाई देगी। वही हरिजनों की बस्ती है । उसी बस्ती में घुसते ही तीसरा घर पंचम राजभर का है । उसी का लड़का सरजूआ है जो शहर से कल ही गाँव आया है। घर खोजने में कोई दिक्कत हो तो वहीँ किसी से पुछ लेना । हां ! एक बात और ! कौनो जरुरत हो तो बीना कौनो संकोच के इ काका के इहाँ चले आना । हम भी हैं । हम सब लोग तुम्हारा हर तरह से मदद करेंगे । डरना नहीं । अब जाओ।” कहकर भोला मुडा और अपनी टोकरी उठाकर चलता बना ।

वह बुजुर्ग व्यक्ति, जिनका नाम चौधरी रामलाल था, अमर से बोले ” हाँ बेटा ! शकल से शरीफ और अच्छे घर के लग रहे हो इसिलिए तुमसे भोला ने जो कहा वो ध्यान रखो । कौनो जरुरत हो तो बिना कौनो संकोच के हमारे पास चले आना । चौधरी रामलाल नाम है मेरा। ध्यान रखना । इन हरिजनों का कोई भरोसा नहीं कब क्या कर बैठे। समझे ! सावधान रहना !”

अमर ने ध्यान से रामलाल की पूरी बात सुनी और उन्हें नमस्कार कर आगे बढ़ गया । गाँव के बीच से टेढ़े मेढ़े रास्तों से गुजरते अमर गाँव के दुसरे छोर तक आ पहुंचा । यहाँ से कुछ खेेतों की क्यारियां और उन्हीं के बीच कच्चे घरों की एक बस्ती दिखाई पड़ी । खेतों के बीच बनी पतली सी पगडण्डी से होकर अमर उस बस्ती में दाखिल हुआ । दाखिल होते हुए अमर का दिल जोरों से धड़क रहा था । किसी भी पल उसका धनिया से सामना हो जायेगा । कैसी होगी वो ? उसे अचानक यहाँ देखकर क्या सोचेगी ? कहीं नकार न दे ? तमाम तरह की आशंकाएं उसके मन में घर किये जा रही थी ।

इन्हीं तमाम सवालों के बीच अमर ने वहीँ एक किनारे खड़े होकर बस्ती पर नजर दौडाई । बस्ती यूँ तो सुनसान नजर आ रही थी । एक घर के आगे कुछ लोग एक चादर बिछाकर नीचे जमीं पर ही बैठे नजर आ रहे थे । अमर ने अंदाजा लगा लिया था शायद यही सरजू का घर होगा । लेकिन धनिया कहीं नजर नहीं आ रही थी । उसके बापू का भी कहीं पता नहीं चल रहा था ।

कुछ देर अमर वहीँ खड़ा कुछ सोचता रहा । तभी एक अधेड़ सा आदमी उसी पगडंडी से होकर उसकी तरफ बढ़ता दिखा ।  अमर ने उसे रोका और उससे पंचम राजभर का घर जानना चाहा ।

उस आदमी ने इशारे से उसे वही घर बता दिया जहां कुछ लोग जमा दिख रहे थे । अब अमर को कोई संदेह होने की वजह ही नहीं थी । आगे बढ़ते हुए वह सोच रहा था वहां किससे बात करेगा । किसी को पहचानता भी तो नहीं था कि तभी उस घर के सामने ही एक कोने में एक स्टूल पर बैठे बाबू हरिजन को देखकर उसकी बांछें खिल गयी।

बाबू को देखते ही उसके कदमों में गजब की तेजी आ गयी थी और अगले ही पल वो बाबु के सामने खड़ा था। उसे अचानक अपने सामने खड़ा देख बाबु के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। तुरंत उठकर खड़ा होते और हाथ जोड़ते हुए बोला “छोटे मालिक ! अब क्या गलती हो गयी ? बड़े मालिक के कहने के अनुसार हम लोग गाँव तो पहले ही छोड़ आये हैं। अब क्या यहाँ भी नहीं रहने देंगे ? ”

अमर दोनों हाथों से उसके जुड़े हुए हाथों को प्रेम से थामते हुए भर्राए स्वर में बोल उठा “काका ! आपका गुनाहगार तो मैं हूँ। मेरे गुनाहों की सजा आप धनिया को क्यों देना चाहते हैं ? आप जो भी सजा मुझे देना चाहें मुझे मंजूर है लेकिन धनिया को कोई तकलीफ हो मुझे मंजूर नहीं। ”

अब तक कुछ बुजुर्ग वहां जमा हो चुके थे । उनमें से किसी ने जानना चाहा कि आखिर माजरा क्या है लेकिन बाबू ने अपना निजी मामला बताकर सबको शांत करा दिया था। अचानक बाबू अमर से मुखातिब हुआ “अमर बाबू ! मैं आपकी शराफत का लिहाज करते हुए आपके आगे हाथ जोड़ता हूँ। आप हमें हमारे हाल पर छोड़कर यहाँ से वापस चले जाओ । हम जैसे भी हैं अपना गुजर बसर तो कर ही लेंगे।”

बाहर शोरगुल सुनकर घर के अन्दर से कुछ औरतें बाहर निकल आयीं और उनके ही साथ निकल आया धोती पहने हल्दी पुते एक मध्यम कद काठी का तीस वर्षीय युवक। अमर ने अंदाजा लगाया शायद यही सरजू होगा । आते ही सीधे बाबू के पास आया और उस से पुछा ” बाबा ! क्या बात है ? कैसा शोरगुल है ? ”

बाबू ने उसे टालने वाले अंदाज में बताया ” अरे नहीं सरजू बेटा ! कोई बात नहीं । ये अमर बाबू अपने जान पहचान वाले हैं । ऐसे ही थोड़ी बातचीत हो रही थी । तुम क्यों आ गए ? देर न हो जाये कहीं । जाओ तुम तैयारी करो ।” बाबू की बात मान कर सरजू वापस घर के अन्दर चला गया । अन्दर शायद हल्दी की रस्म चल रही थी । ‘ इसका मतलब धनिया भी अन्दर ही होगी । तो फिर क्या उसे मॆरी आवाज सुनाई नहीं दी ? बाहर क्यों नहीं आई ? ‘

जैसे विचार अभी उसके मन में घुमड़ ही रहे थे कि सस्ती सी पीली सूती साडी पहने धनिया बदहवास सी बाहर की तरफ भागती हुयी आई । उसके पीछे पीछे ही कुछ लड़कियां और सरजू भी भागते हुए बाहर ही आ गए थे पुरे जिस्म पर हल्दी पुती हुयी थी । उसकी आँखें लाल सुर्ख हो गयीं थी और आँखों में सूजन भी प्रतीत हो रही थी । ऐसा लग रहा था जैसे धनिया ने पूरी रात जागते और रोते हुए ही बिताई हो । धनिया की अवस्था देखकर अमर तड़प उठा । धनिया दौड़ते हुए आकर अमर के कदमों से लिपट गयी ।

(क्रमशः)

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।