मेरी पहली गज़ल : ले गए तुझे तो वो जिन्होंने तेरी कीमत चुकाई
ले गए तुझे तो वो, जिन्होंने तेरी कीमत चुकाई
हम तो बेमोल बिके, हमें न इश्क़-ए-एहतसाब समझ आई
तूने लूटा बेशक़, अपने ही खरीददारों को
मैंने जब फैलाई तेरे आगे ही, इश्क-ए-खैरात को हथेली फैलाई
लबालब रहा तेरा सियाहा, फिर भी रोनी सूरत बनाई
मैं देख कैसे तेरे लिए लुटी, फिर भी मुस्कुराई
न बुरा किया कभी, न करने ही दिया
चाहा अजल से जो भी हो, हो उसमें तेरी ही भलाई
क़द्रदानो की कीमत, का इल्म ही कहाँ है तुम्हें
तुमने तो जब भी की, की मेरी ही रुसवाई
खुद को बड़ा ही, बताया किया खुद्दार
ये कैसी खुद्दारी कि, आप ही आप की कीमत लगाई
बेजान, बेदिल से बुत, तुझे खरीद ले गए
धड़कता दिल लिए, मैं ही काफ़िर कहलाई
तुम डरा किए, फिकरों से, किस्सों से
मैं ज़माने भर की तोहमत, सर के ताज सा उठा लाई
माना की दर-ए-यार पे, सदा से हम गदा रहे
कैसा मालिक तू गोया, कि असबाब से लदकर भी किवाड़ लगाई
दिल का दांव लगाया भी तो किस पे, कि रूह तक गिरवी है
तुझे भी तो ऐ ‘रेणुका’, इश्क-ए-तिजारत कहाँ समझ आई
— नीतू सिंह ‘रेणुका’