मिले
मेरी ख़ुशी का ग़म का जहाँ हिसाब मिले
चले वहां जहाँ रिंदों को भी सवाब मिले
मेरी नेकी ने बोहोत तोहमतें कमाईं है
अब कुछ तो मेरी बदी को नया खिताब मिले
क्यों आसमाँ को तकते रहे हमेशा हम
जब ज़मी पे ही हमे कितने आफ़ताब मिले
मुंतज़िर हूँ मैं कुशादा भी ज़र्फ़ है मेरा
फिर क्यों न मेरे सवालों को हैं जवाब मिले
ग़ैब के बाग़ की खुशबु का निशा मिल जाये
‘अजनबी’हमको भी ऐसी खुली किताब मिले
(रिन्द- शराब पिने वाला
सवाब- पुण्य
आफताब – सूरज
मुन्तजिर- इंतज़ार करना
कुशादा-ज़र्फ़ – गहरा ,बड़ा बर्तन
ग़ैब – अदृश्य लोक )