ग़ज़ल : इक घाट पे धुले वो सभी पैरहन तमाम
पर्दा जो उठ गया तो हुआ काला धन तमाम
चोरों की ख्वाहिशों के जले तन बदन तमाम
बरसों से जो महकते रहे भ्रष्ट इत्र से
इक घाट पे धुले वो सभी पैरहन तमाम
बावक्त असलियत का मुखौटा उतर गया
किरदार का वजूद हुआ दफ़अतन तमाम
ये बंद खिड़कियाँ जो खुली पस्त हो गई
सब झूठ और फरेब की बदबू घुटन तमाम
जादू न जाने क्या था मदारी के खेल में
मदहोश हो गई वो तभी अंजुमन तमाम
परवाज पर लगाम जो माली ने डाल दी
भँवरे का हो गया वो तभी बाँकपन तमाम
तदबीर में दवाएँ भी नाकाम हो रही
ईमान की खुराक से सुधरे वतन तमाम
— राजेश कुमारी ‘राज’