गीतिका/ग़ज़लपद्य साहित्य

सिसकियाँ

दबे होटों की सिसकियाँ जो देख लेते थे
उन फरिश्तों की बिनाई खो रही है

दवाघर मरीजों ने सभी हथिया लिए हैं
अब चारागर की ही दवाई हो रही है

गलाज़त खुद अपने जहानो में भरी है
और सड़कों की सफाई हो रही है

संगदिल ज़माने में सभी आबाद बैठे हैं
दर्दमंदों की ही तबाही हो रही है

उसूलों की ये कैसी कश्मकश है
अब अज़ीज़ों से लड़ाई हो रही है

(बिनाई- देखने की क्षमता
चारागर- डॉक्टर
गलाज़त- गन्दगी )

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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