लघुकथा

परख

रामफल ने दरवाजा खोला । अपने बचपन के मित्र अशोक को सामने खड़े देखकर उसे सुखद आश्चर्य हुआ और लपक कर उसे गले से लगा लिया । बड़ी देर तक दोनों मित्र घर में बैठे एक दुसरे से मन की बात और पुरानी यादें साझा करते रहे । अचानक अशोक ने रामफल की तरफ देखते हुए पुछ ही लिया ” यार ! बुरा न लगे तो मैं एक बात कहूँ ? ”
रामफल ने उसका हाथ अपने हाथों में थामते हुए जवाब दिया ” कमाल कर रहा है तू भी ? यार भी कह रहा है और डर भी रहा है ? कह क्या कहना चाहता है । ”
” यार ! मैं चाहता हुं कि ये अपनी दोस्ती रिश्तेदारी में बदल जाये तो कितना अच्छा हो । तु मेरी बेटी को अपनी बहु स्वीकार कर ले । ” ,अशोक ने अपने मन की बात कह दी ।
रामफल ने कोई जवाब नहीं दिया और अशोक को घुमाने के लिए बाजार में लेकर चला गया । इस बीच अशोक ने कई बार रिश्तेदारी को लेकर उसका मत जानना चाहा लेकिन रामफल बड़ी खूबसूरती से जवाब देने से बचता रहा । बाजार में मिटटी के बर्तन बिकते देख अशोक रुका । ” मिटटी के घड़े का पानी सेहत के लिए अच्छा होता है सो एक खरीद लेता हुं ।” कहकर अशोक ने घडेवाले से मोलभाव करना शुरू कर दिया और साथ ही घड़े उठाकर ठोंक बजा कर परखने भी लगा । कई घड़ों को देखने के बाद अशोक ने एक सुन्दर नक्काशीदार घड़ा पसंद किया और उसे खरीद लिया ।
घर की तरफ बढ़ते हुए अशोक ने पुनः रामफल से उसकी इच्छा जाननी चाही । रामफल ने उसके हाथ के घड़े की तरफ इशारा करके पुछा ” अच्छा अशोक ! ये बताओ ! यह घड़ा कितना दिन तुम्हारे घर में रहेगा ? ”
उसके इस बेतुके सवाल से चकित अशोक ने जवाब दिया ” अब इसकी कोई गारंटी थोड़े ही न है । आखिर मिटटी का ही बना है । कभी भी टूट सकता है । ”
मंद मंद मुस्कुराते हुए रामफल ने जवाब दिया ” कुछ दिनों तक ही रहनेवाली चीज को खरीदने से पहले तुमने उसे अच्छी तरह ठोंकबजा कर देख कर तसल्ली होने के बाद ही ख़रीदा और तुम मुझसे चाहते हो कि मैं जो चीज मेरे घर जीवनपर्यंत रहनेवाली हो उसके बारे में बीना सोचे समझे जांचे परखे ही फैसला कर लूँ ?  “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।