राजनीति

मुस्लिमपरस्ती खेलकर सत्ता पाने की चाहत में बसपा

उप्र विधानसभा चुनावों में रैलियों, जनसभाओं ओर रोड शो के चलते सभी दलों के प्रचार और प्रसार में तेजी आ गयी है। अभी तक सभी सर्वेक्षणों व ज्योतिषी आंकलन में यदि किसी दल को बेहद कमतर व कमजोर माना जा रहा है तो वह है बसपा। लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। जब सभी दलों के बीच करो या मरो की कांटे की लड़ाई चल रही है, तब केवल एक महिला ऐसी है जो पूरी तरह से निडर और निर्भय होकर अपनी लड़ाई को लड़ रही है और पीएम मोदी, राहुल गांधी और अखिलेश यादव जैसे दिग्गजों को खुली चुनौती पेश कर रही है। वह हैं बहिन मायावती।

मायावती अपनी रैलियों व पे्रसवार्ताओं में पूरे मनोयोग से यह दावा कर रही हैं कि इस बार 11 मार्च को सभी एग्जिट पोल, सर्वे तथा ज्योतिषी भविष्यवाणियों की पोल खुलने जा रही है। लाख बगावतों को दरकिनार करते हुए वह पूरे मनोबल के साथ चुनाव प्रचार में जुटी हुयी हैं तथा अपने पक्ष में उमड़ रहे जनसैलाब पर वह आत्ममुग्ध होकर कह भी रही हैं कि हमारी जनसभाओं में आ रही भीड़ से साफ पता चल रहा है कि इस बार सरकार बसपा की ही बनने जा रही हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती के पास फिलहाल कोई विशेष मुद्दा तो नहीं हैं लेकिन वह किसी न किसी बहाने पीएम मोदी व केंद्र सरकार पर जमकर हमला बोल रही हैं और प्रदेश सरकार की नाकामियों को भी जमकर जनता के बीच उठा रही हैं। वह बिहार की तर्ज पर आरक्षण का मुद्दा भी उठा रही हैं और अल्पसंख्यको के मुद्दों को भी जबर्दस्त धार देने में जुटी हुयी हैं।

यही नही सबसे बड़ी बात यह है कि अब अनेकानेक मुस्लिम संगठन व धर्मगुरू बसपा के समर्थन में बयानबाजाी में करने लग गये हैं, जिसके कारण मायावती का मनोबल और ऊंचा हुआ है। मायावती अपने भाषण में अल्पसंख्यकों से अपील कर रही हैं कि यदि उन्हें भयमुक्त रहना है तो केवल बसपा को वोट करें। यही कारण है कि मुस्लिम धर्मगुरू जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद इमाम बुखारी ने पाला बदलते हुए बसपा को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। यही नहीं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ ने भी बसपा को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। ज्ञातव्य है कि उप्र के पांच चरणों में होने जा रहे मतदान में मुस्लिमों की अच्छी तादाद है। चुनाव के मद्देनजर सपा और बसपा के बीच मुस्लिम मत पाने की होड़ लगी हुयी है।

भारतीय निर्माण मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित मिश्रा व कुरैशी महापंचायत के प्रदेश अध्यक्ष मो. शकील कुरैशी ने सपा सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए बसपा को समर्थन देने का ऐलान किया। इसके अंतर्गत 13 अन्य संगठन भी आते हैं। एक प्रकार से मुस्लिमपरस्ती में इस बार अब बसपा सभी दलों को पछाड़ने जा रही है। वहीं राजनैतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि केंद्र की भाजपा सरकार, पीएम मोदी पर हमला उनकी एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है जिसके पीछे उनकी असली मंशा मुस्लिमतुष्टीकरण भी हैं। मायावती ने अब मुस्लिम मतों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है।

सभी दल मुस्लिम वोटबैंक को ही अपने पास सुरक्षित रखना चाह रहे हैं। समाजवादी दल में अतीक अहमद से लेकर पूर्वांचल के बाहुबली मुख्तार अंसारी अपने परिवार सहित सपा से टिकट पाने के लिए उनके दरवाजे पर दौड़ लगा रहे थे, लेकिन सपा के नये मुखिया व सीएम अखिलेश यादव के आगे उनकी एक नहीं चल पायी और अंततः उनको सपा से टिकट की उम्मीदवारी छोड़नी ही पड़ गयी। अब वे एक बार फिर बसपा में विलीन हो गये हैं तथा उनको मऊ सदर से टिकट भी मिल गया है। उनके भाई व बेटे को भी बसपा का टिकट मिल गया है। बसपा नेत्री मायावती का कहना है कि मुख्तार अंसारी व उनके परिवार को राजनैतिक कारणों से फंसाया गया है। अब वह कह रही है कि जब बसपा की सरकार बनेगी तब अंसारी बंधुओं के साथ न्याय होगा। अब अंसारी बंधु बसपा की शरण में जाकर गरीबों के मसीहा बन गये हैं।

यह मुस्लिम वोट बैंक की चाहत है कि जो अंसारी बंधु अभी तक बसपा के लिए अछूत थे अचानक से उनके प्रेमी हो गये। बसपा का मानना है कि अंसारी बंधुओं के आ जाने से पूर्वांचल में बसपा की स्थिति काफी मजबूत हो जायेगी तथा वह लड़ाई में आ जायेंगी। सबसे बड़ी बात यह है कि राजनीति के अपराधीकरण के लिए कुख्यात इलाकों में पूर्वांचल का नाम सबसे आगे है। मुख्तार अंसारी लगातार चार बार मऊ से विधायक चुने जा चुके हैं। दो बार बसपा टिकट पर, एक बार निर्दलीय और एक बार स्वयं के बनाये गये दल कौमी एकता दल से। उनके एक और भाई सिबगतुल्ला अंसारी भी उसी दल से विधायक हैं। जबकि एक अन्य भाई अफजाल अंसारी सांसद रह चुके हैं। मुख्तार अंसारी के बसपा में शामिल होते ही कौमी एकता दल का भी विलय हो गया। एक प्रकार से वह साइकिल से सवार होते-होते हाथी की सवारी कर बैठे हैं।

माना जाता है कि अंसारी के परिवार का इतिहास कांग्रेस से जुड़ा है। स्वयं मुख्तार अंसारी के पिता भी स्वतंत्रता सेनानी तथा कम्युनिस्ट नेता थे। मुख्तार ने अपनी राजनीति की शुरूआत छात्र राजनीति से की थी। मुख्तार अंसारी इस क्षेत्र के जनप्रतिनिधि बनने से पहले दबंग व माफिया के रूप मेें पहचाने जाते थे। 1988 में पहली बार उनका नाम हत्या के एक मामले में सामने आया लेकिन पुलिस कोई सबूत नहीं जुटा सकी। 1990 के दशक में जमीन के कारोबार ओर ठेकों की वजह से वे अपराध की दुनिया में एक चर्चित चेहरा बन चुके थे। माना जाता है कि वे गाजीपुर और पूर्वी उप्र के कई जिलों में सरकारी ठेके आज भी नियंत्रित करते हैं।

1995-96 में अंसारी को एक ठाकुर बाहुबली बृजेश सिंह से सीधी चुनौती मिलनी शुरू हो गयी थी। अंसारी के राजनैतिक प्रभाव का मुकाबला करने के लिए बृजेश सिंह ने भाजपा नेता कृष्णानंद राय का समर्थन किया था तथा राय ने 2002 में विधानसभा चुनाव में मोहम्मदाबाद से मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी को हराया था। यही मुख्तार अंसारी कृष्णानंद राय की हत्या मेें मुख्य अभियुक्त बनाये गये हैं। उनके खिलाफ हत्या, अपहरण, फिरौती सहित कई आपराधिक मामले दर्ज हैं। अब यही अंसारी बसपा में आने के बाद गरीबों के मसीहा बन गये हैं। बसपानेत्री मायावती उनकोे राजनैतिक व समाजिक न्याय दिलाने जा रही हैं।

माना जा रहा है कि कभी वह बसपा से नाराज होकर सपा में चले गये थे तथा एक बार स्वयं बसपानेत्री मायावती ने ही उन्हें पकड़वाया भी था, लेकिन अब वही वोटबैंक की चाहत में निर्दोष हैं तथा उन्हें विरोधी ताकतों ने राजनैतिक विद्वेष की भावना से फंसाया है। सबसे बड़ी बत यह है कि बसपा ने ही उनको 2009 में लोकसभा का चुनाव लड़ाया था और उन्हें गरीबों का मसीहा बताकर पेश किया था, लेकिन तब भी वह भाजपा के डा. मुरली मनोहर जोशी से 17 हजार से भी अधिक मतों से हार गये थे। 2010 में अंसारी बंधुओं के बसपा से रिश्ते खराब होते चले गये तथा बाद में उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। लेकिन यहां पर भी मायावती का कहना है कि अब उन्हें अपनी गलतियों का पछतावा हो रहा हैं। यही आज की राजनीति का तकाजा है।

इन सभी लोगों को बसपा में शामिल करने के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह है कि बसपा का सारा गणित दलित-मुस्लिम वोटबैंक पर टिका है। सपा व कांग्रेस के बीच गठबंधन के बाद मुस्लिम मतदाताओं में बिखराव की संभावना बढ़ गयी है। ऐसे में बसपा मुस्लिम मतदाताओं का ठोंस समर्थन पाने की कवायद में दिन रात जुटी हुयी है तथा बाहुबली विधायकों ंको बसपा मेें शामिल करवाना उसी रणनीति का एक बड़ा हिस्सा है।

इसी बीच कुछ और मुस्लिम संगठनों तथा गरीब नवाज फाउंडेशन ने भी बसपा को समर्थन दे दिया है। समाजवादी सरकार में हुए दंगों के सहारे वे मुस्लिमों के बीच सहानुभूति बटोरने का पूरा प्रयास कर रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि पहली बार बसपानेत्री मायावती सोशल मीडिया पर भी अपनी उपस्थिति को मजबूती से दर्ज करा रही हेैं। मायावती इस बार लोकलुभावन नारों को भी उठा रही हैं। वह सब कुछ अकेले दम पर कर रही हैं तथा उन्हें जनसमर्थन भी अंदर ही अंदर मिल रहा है। बसपा का अपना एक वोटबैंक है तथा नोटबंदी व सपा सरकार की नाकामी का व भाजपा के पास मुुख्यमंत्री पद का कोई दमदार चेहरा न हो पाने के कारण बसपा कमजोर नहीं, अपितु बड़े दलों का खेल बिगाड़ने का काम कर सकती है तथा सभी राजनैतिक पंडितों को चैंकाने की क्षमता रखती हैं।

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं बसपा अब और अधिक हमलावर होती जा रही है। बसपानेत्री मायावती अत्यधिक सक्रियता के साथ प्रतिदिन किसी न किसी मुददे पर प्रेसवार्ता आदि के माध्यम से अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ाने का काम कर रही हैं। नोटबंदी के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह व प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य लगातार बीसपी सुप्रीमो मायावती पर हमलावार हो रहे हैं, उसी पर पलटवार करते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती का कहना है कि चेहरे का असली नूर तो पीएम मोदी व अमित शाह का गायब हो गया है। राजधानी लखनऊ में आयोजित प्रेसवार्ता को संबोधित कते हुए मायावती ने सपा-कांग्रेस गठबंधन पर और मुस्लिम-दलित गठजोड़ पर भी अपने विचार व्यक्त किये।

बसपा सुप्रीमो मायावती ने दावा किया है कि उप्र में सपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन भाजपा के इशारे पर ही होने जा रहा है। उन्होंने कहा कि जब-जब प्रदेश में समाजवादी दल की सरकार आयी है तब-तब राज्य में भाजपा मजबूत हुयी है जिसका परम उदाहरण वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव हैं जिसमें भाजपा अपने सहयोगी दल के साथ 73 सीटें जीतने में कामयाब रही। मायावती ने दावा किया कि संभावित हार से घबराकर सपा कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के लिए परेशान है। अपनी नाकामियों का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़कर अपनी स्थिति बचाये रखना चाहती है। मोदी सरकार सपा को आय से अधिक संपत्ति जैसे मामलों में डराकर गठबंधन करा रही है। जब भाजपा का ग्रीन सिग्नल मिलेगा तब सपा-कांग्रेस में गठबंधन हो जायेगा। उन्होंने पूर्व में भाजपा से मिलकर सरकार बनाने पर सफाई देते हुए कहा कि उन्होंने बसपा के सिद्धांतों व उसूलाें से कतई समझौता नहीं किया था।

बसपा मुस्लिम समाज के हित में किये गये कार्याें की पुस्तिका भी वितरित करवा रही है, जिसमें मुस्लिमों को समझाते हुए कहा गया है कि जो भाजपा को हराने की स्थिति में हो तो उसे ही वोट देना चाहिये। मुस्लिम समाज में अब यह धारणा बैठ रही है। मुस्लिम समाज को बताया जा रहा है कि सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव से विरासत में मुख्यमंत्री पद पाने वाले मुख्यमंत्री के शासनकाल में काफी दंगे हुए हैं। मुजफ्फर नगर दंगों का दाग सपा वैसे ही नहीं मिटा सकती, जैसे वर्ष 2002 में हुए दंगों का दाग गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार नहीं मिटा सकती है। सपा शासनकाल में वर्ष 1989 व 1990 में बिजनौर, अलीगढ़ व गोंडा के करनैल गंज और आगरा में हुए दंगों के खूनी दाग मुलायम सिंह के दामन पर लगे हुए हैं।

बसपा ने विषम परिस्थितियों में मुस्लिम समाज की सुरक्षा के इंतजाम किये थे जिस पर उस समय बुकलेट भी प्रकाशित करवायी थी। मायावती का कहना है कि दंगों को लेकर कांग्रेस का इतिहास भी खराब रहा है। वर्ष 1980 में मुरादाबाद दंगा, 1987 में मेरठ का हाशिमपुरा का दंगा, 1987 में मुजफ्फरनगर और बंदायू दंगों को कौन भुला सकता है। ये सब कांग्रेस के शासनकाल में हुए। सपा इसी तरह मुजफ्फरनगर और दादरी के दाग को नहीं धो सकती। उन्होेंने मुस्लिम समाज से सोच समझकर फैसला लेने की अपील की। दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर अपना गणित बताते हुए मायावती यह मानकर चल ही है कि दलितों का 22 फीसदी वोट बसपा के साथ है और उसके साथ यदि मुस्लिम वोट भी जुड़ जाये तो बसपा को फायदा हो सकता है। एक प्रकार से बसपा सुप्रीमो मायावती की असली नजर दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर ही टिकी हुयी है। उन्हें इसी बल पर सत्ता में वापसी की राह आसान दिख रही है।

मृत्युंजय दीक्षित