कविता

छंदमुक्त काव्य

“पथिक हूँ पथिक”

रुक पा रहा हूँ न चल पा रहा हूँ

पथिक मैं पथिक हूँ रगड़ खा रहा हूँ

मंजिल वहाँ है

सपने जहाँ हैं

राहों का क्या वो कहाँ की कहाँ हैं

उसी राह पर पग बढ़ा जा रहा हूँ

पथिक मैं पथिक हूँ रगड़ खा रहा हूँ………

कंधे पर मेरे बोझिल तमन्ना

उतरती नहीं है मेरी बिपन्ना

जिये जा रहा हूँ

सिये जा रहा हूँ

मग-पग धूल, धुसरित किए जा रहा हूँ

छपे  पाँव पर नए पाँव दिये जा रहा हूँ

पथिक मैं पथिक हूँ रगड़ खा रहा हूँ……..

कहीं तो मिलेगी कभी तो मिलेगी

किनारे एक दुनियाँ कहीं तो बसेगी

विहस पूछ लूँगा

तड़फ ठूंस दूंगा

बिछाऊंगा गठरी जो लिए जा रहा हूँ

हठ मंजिल की नाहक किए जा रहा हूँ

पथिक मैं पथिक हूँ रगड़ खा रहा हूँ……..

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ